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(१०) उड़िया ग्राम-साहित्य में राम-चरित्र
[लेखक-श्री देवेंद्र सत्यार्थी ] स्याम सुरभि-पय बिसद अति गुनद करहि सब पान । गिराग्राम्य सिय-राम-जस गावहिँ सुनहिं सुजान ॥
-रामचरितमानस, बालकांड । जिस प्रकार फल की उत्पत्ति से पहले फूल अपनी बहार दिखाता है उसी प्रकार बड़े बड़े प्रतिभाशाली साहित्य-सेवियों तथा कलाकारों के आने से पहले ग्रामीण भाट और कथकड़ गीत गाकर ग्राम-साहित्य की नींव डालते हैं। साहित्य के इस बाल्यकाल में घटना और कल्पना में सगी बहनो का सा संबंध रहता है। सुख-दुःख की कितनी ही समस्याएं भोले-भाले ग्राम-वासियों को अपने साथ हँसाकर या रुलाकर साहित्य-निर्माण के लिये सामग्री प्रदान करती हैं। माता के हृदय में वात्सल्य रस का जन्म होता है। शिशु दूध भी पीता जाता है और वात्सल्य रस से ओत-प्रोत मीठी मीठो लारियाँ भी सुनता जाता है। ग्रामीण नर-नारी अपने आपको भूलकर गाते हैं और अपने दुखी जीवन को मधुर बना लेते हैं। राह-चलते बटोही गीत गा गाकर अपना पसीना सुखा डालते हैं। जीवन की विषमता तथा विकटता में भी उन्हें कविता-देवी के साकार दर्शन होते हैं। इस प्रकार 'साहित्य' सबके साझे की वस्तु बन जाता है । इस अवस्था में भाड़े के गायकों की कुछ आवश्यकता नहीं पड़ती।
लोरियाँ सुननेवाला शिशु रात के समय चूल्हे के पास बैठी हुई माँ से कहता है-'माँ, कहानी सुना।' माँ कहानी आरंभ करती है-'एक राजा था।' अज्ञात राजा-रानी के नाम से कथा-साहित्य की सृष्टि होती है। थोड़ा आगे चलकर माँ कहती है-'उस राजा
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