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जेतवन
३०७ ( १८) "कूटकर गाड़ा गया था" से खंभों का गाड़कर, लकड़ियों का बना मालूम होता है।
मज्झिमनिकाय में
"हे गौतम, जिस प्रकार इस मिगारमाता के प्रासाद में अंतिम सोपान कलेवर तक अनुपूर्व क्रिया देखी जाती है...।"
अट्ठकथा में
"प्रथम सोपानफलक' तक, एक ही दिन में सात महल का प्रासाद नहीं बनाया जा सकता। वस्तु शोधन कर स्तंभ खड़ा करने से लेकर चित्रकर्म करने तक अनुपूर्व क्रिया ।"
इससे भी
(१६ ) वह प्रासाद सात महल का था, जो (१२) से बिल्कुल विरुद्ध है, और इसको बतलाता है कि किस प्रकार बातों की अतिशयोक्ति होती है।
(२० ) मकान बनाने में पहले भूमि को बराबर किया जाता था, फिर खंभे गाड़े जाते थे,...अंत में चित्रकर्म होता था ।
मज्झिमनिकाय में ही
"जिस प्रकार आनंद ! यह मिगारमाता का प्रासाद हाथी, गाय, घोड़ा-घोड़ो से शून्य है, सोना चांदो से शून्य है; स्त्री-पुरुष. सन्निपात से शून्य है"। इसकी अट्ठकथा में लिखा है
"वहाँ काष्ठ-रूप, पुस्त-रूप, चित्र-रूप में बने हाथी आदि हैं। वैश्रवण मांधाता आदि के स्थित स्थान पर चित्रकर्म भी किए गए हैं। रत्न-परिसेवित जंगले, द्वारबंध, मंच, पोठ प्रादि रूप से स्थित,
(१) म. नि., ३:१:७, गणक-मेगालानसुत्त, १०७ । (२) अ.क०, ८५५ । (३) म०नि०, ३:२:७, चुल सुजतासुत्त, ११६ । ( ४ ) अ० क.।
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