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नागरीप्रचारिणी पत्रिका कुल पास ही जेतवन के द्वारकोटक का होना सिद्ध होता है और फिर ४८७ नंबरवाले खेत की निचली भूमि ही जेतवन की पुष्करिणी सिद्ध होती है।
कपल्ल-पूव-पन्भार-इसमें संदेह नहीं कि कितनी ही जगहों का प्रारंभ अनैतिहासिक कथाओं पर प्रवलंबित है, किंतु इससे वैसे स्थानों का पीछे माना जाना असत्य नहीं हो सकता। ऐसा ही एक स्थान जेतवन-द्वारकोटक में 'कपल्ल-पूव-पब्भार' था। कथा यों है
राजगह नगर के पास एक सक्खर नाम का कस्बा था। वहाँ अस्सी करोड़ धनवाला कौशिक नामक एक कंजूस सेठ रहता था। उसने एक दिन बहुत आगा-पोछा कर भार्या से पुत्रा खाने के लिये कहा । स्त्री ने पुप्रा बनाना प्रारंभ किया। यह जान स्थविर महामोग्गलान उसी समय जेतवन से निकलकर ऋद्धिबल से उस कस्बे में सेठ के घर पहुँचे।...सेठ ने भार्या से कहा-भद्रे! मुझे पुनों की जरूरत नहीं, उन्हें इसी भितु को दे दो।...स्थविर ऋद्धिबल से सेठसेठानी को पुत्रों के साथ लेकर जेतवन पहुँच गए। सारे विहार के भिक्षुओं को देने पर भी वह समाप्त हुमा सा न मालूम होता था। इस पर भगवान ने कहा-इन्हें जेतवन द्वारकाठक पर छोड़ दो। उन्होंने उसे द्वारकोढ़क के पास के स्थान पर ही छोड़ दिया। आज भी वह स्थान कपल्ल-पूर्व-पन्भार के ही नाम से प्रसिद्ध है।
यह स्थान भी द्वारकोष्ठक के ही एक भाग में था, और इस जगह की स्मृति में भी कोई छोटा-मोटा स्तूप अवश्य बना होगा। __ जेतवन के बाहर की बातों को समाप्तकर अब हमें जेतवन के अंदर की शेष इमारतों को देखना है। विनय (पृष्ठ १५२) के अनु
(१) धम्मपदट्ठकथा, Vol. I, p. 373.
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