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नागरीप्रचारिणो पत्रिका ने उसे सारिपुत्त मोगलान के विषय में चित्त को प्रसन्न करने के लिये तीन बार कहा, किंतु उसने तीन बार उसी को दुहराया। वहाँ से प्रदक्षिणा करके गया तो उसके सारे बदन में सरसों के बराबर फुसियाँ निकल आई, जो क्रमश: बेल से भी बड़ी हो फूट गई। फिर खून और पीब बहने लगा और वह इसी बीमारी में मरा ।
इसमें कहीं कोकालिक के सने या बुद्ध को अपमानित करने का वर्णन नहीं है। इसमें शंका नहीं, इसी सुत्तनिपात की अट्ठकथा में इस कोकालिय को देवदत्त के शिष्य कोकालिय से अलग बतलाया है, किंतु उसका भी जेतवन के पास भूमि में धंसना कहीं नहीं मिलता। चंचा के भूमि में फंसने का उल्लेख फाहियान और ह्य न चालू दोनों ही ने किया है। लेकिन ह्य न-चाङ् ने ८०० कदम दक्षिण लिखा है, यद्यपि फाहियान ने चूहों से बंधन काटने और धंसने का स्थान एक ही लिखा है। पाली में यह कथा' इस प्रकार है__ पहली बोधी' (५२७-१३ ई० पू०) में तैर्थिकों ने बुद्ध के लाभ. सत्कार को देखकर उसे नष्ट करने की ठानी। उन्होंने चिंचा परिव्राजिका से कहा। वह श्रावस्ती-वासियों के धर्मकथा सुनकर जेतवन से निकलते समय इंद्रगोप के समान वर्णवाले वस्त्र को पहन गंधमाला आदि हाथ में ले जेतवन की ओर जाती थी। जेतवन के समीप के तीर्थिकाराम में वास कर प्रातः ही नगर से उपासक जनों के निकलने पर, जेतवन के भीतर रही हुई सी हो, नगर में प्रवेश करती थी। एक मास के बाद पूछने पर कहती थी कि जेतवन में श्रमण गौतम के साथ एक गंधकुटी ही में सोई हूँ। आठनौ मास के बाद पेट पर गोल काष्ठ बाँधकर, ऊपर से वस्त्र पहन, सायाह्न समय, धर्मोपदेश करते हुए तथागत के सामने खड़ी हो
(१) धम्मपद-अ० क०, १३:१६ ।
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