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हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय में आकर प्राचीन स्मृतियों के बीच अपने राधाकृष्णमय जीवन को सार्थक समझा।
कर्णाटक और गुजरात में आनंदतीर्थ ( मध्व ) ने वि० सं० ११५७ से १३३२ (सन् १२०० से १२७५ ई०) के बीच अपने द्वैतवाद के द्वारा उपास्य और उपासक के लिये पूर्ण स्थूल प्राधार निकालकर वैष्णव भक्ति का प्रचार किया। ____ महाराष्ट्र में पंढरपुर का विठोवा का मन्दिर वैष्णव धर्म के प्रचार का केंद्र हो गया। ग्यारहवीं शताब्दी में मुकुंदराज ने अद्वैतमूलक सिद्धांतों को लेकर वैष्णव धर्म का समर्थन किया। नामदेव, ज्ञानदेव प्रादि पर स्पष्ट ही उसका प्रभाव पड़ा था। ___बंगाल में चैतन्यदेव (सं० १५४२-१५६०) और उनकी शिष्यमंडली ने भक्ति की उन्मादकारिणी विह्वलता में जन-समाज को भी पागल बना दिया।
उत्तर में राघवानंद और रामानंद तथा बल्लभाचार्य के प्रयत्न से वैष्णव भक्ति का प्रवाह सर्वप्रिय हो गया। राघवानंद रामानुजी श्रीवैष्णव थे और रामानंद उनके शिष्य, जिनका अलग ही एक संप्रदाय चला। गोसाई तुलसीदास उन्हीं के संप्रदाय में हुए । रामानंद ने सीताराम की भक्ति का प्रतिपादन किया और बल्लभ ने शुद्धाद्वैत और पुष्टिमार्ग को लेकर राधा-कृष्ण की भक्ति चलाई ।
ठीक इसी समय उत्तर भारत के हिदुओं को मुस्लिम विजय के कारण समस्त विरक्तिमय धर्मों के उस मूल सिद्धांत का अपने ही जीवन में अनुभव हो रहा था, जिसके अनुसार संसार केवल दुःख का प्रागार मात्र है। उस समय वे ऐसी परिस्थिति में थे जिसमें संसार की अनित्यता का, उसके सुख और वैभव की विनश्वरता का स्वाभाविक रूप से ही अनुभव हो जाता है। अतएव अत्याचार के नीचे पिसकर विपत्ति में पड़े हुए हिंदुओं ने सांसारिक सुख और
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