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मेरी मेवाड़यात्रा "उन किय सेवा लोभहित, तुम निरलोभ असेस । सेवक वर सुग्रीव ते, भामाशाह विशेष ॥"
सेवा तो दोनों ही ने की है। किन्तु, सुग्रीव की सेवा लोभ के कारण थी और भामाशाह की सेवा निलोभिपन की थी। इसी लिये, सुग्रीव की अपेक्षा भामाशाह कहीं अधिक बढ़ जाते हैं।
जैनधर्मकुलभूषण वीरवर भामाशाह के वंशज आज भी उदयपुर में विद्यमान हैं।
भामाशाह की तरह , अनेक जैन मन्त्रियों ने, उदयपुर की राजगद्दी पर बैठने वाले महाराणाओं की सेवा की है, जिसके उदाहरण आज भी इतिहास में मिलते हैं। जिस तरह उन मन्त्रियोंने अपने स्वामियोंकी सेवायें की थीं; उसी तरह उदयपुर के महाराणा लोग भी प्रारम्भ से लगाकर आजतक जैनों के साथ बराबर अपना सम्बन्ध रखते आये हैं । जैनों के साथ के इस प्राचीन सम्बन्ध का ही यह परिणाम है, कि आज भी राज्य के अनेक छोटे बड़े ओहदों पर अनेक जैन ओसवाल मौजूद हैं। राज्य की, जैनों पर रहनेवाली इस दयादृष्टि का ही यह परिणाम है, कि आज मेवाड राज्य में करीब पौन लाख जैनों की बस्ती और तीन हजार मन्दिर मौजूद हैं। ( जैनोंकी इस पौन लाख की वस्ती में, श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापन्थी आदि सभी का समावेश हो जाता है।) राज्य के साथ के इस प्राचीन सबन्ध का ही यह फल है, कि मेवाड़ राज्य में केशरियाजी, करेडाजी, दयालशाह का किला, चवले
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