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राज्य के साथ जैनों का सम्बन्ध
प्राण रहने तक कभी भी परतन्त्र-गुलामी में न रहने की प्रतिज्ञा करते हुए प्रताप अपना देश छोड़कर चल देते हैं । हृदय में दुःख का पार नहीं है, किन्तु साधनहीन प्रताप के लिये देश छोड़ देने के अतिरिक्त और उपाय ही क्या है ?
प्रताप, घोडे पर सवार हो कर बिदा होते हैं। उस समय एक वृद्ध पुरुष, जिसके बाल सफेद हो चुके हैं, जो शरीरसे अशक्त है, लकडी के सहारे से चल रहा है, चलता चलता ठोकरें खा जाता है-प्रताप के सन्मुख आ कर मार्ग में खड़ा हो जाता है। यह वृद्ध पुरुष किस प्रकार के भावपूर्वक महाराणा प्रताप के सन्मुख आ कर खड़ा है, उसका वर्णन करता हुआ कवि कहता है
"स्वामिभक्ति प्रेम धर्यो पूरण ह्रदय बीच,
देश अभिमान भो जाकी रग रग में । कीरति को लाड़ो और मन को उदार गादो,
भामाशाह आड़ो आय ठाढ़ो भयो मग में ॥७३२॥"
सन्ध्या का समय था, प्रताप ने लकड़ी के टेकेसे चलकर सामने खड़े हुए वृद्ध पुरुष को न पहचाना । तब, वे उस वृद्ध पुरुष से पूछते हैं, कि 'तुम कौन हो? तुम्हारा क्या नाम है ? तुम्हारी क्या उपाधि है ? तुम्हारा गाम कौन सा है?' आदि । भामाशाह, प्रताप के इन प्रश्नों के उत्तर में जो कुछ कहते हैं, वह कवि के शब्दों में यों है"बोलि 'जयजीव ' और नजर सप्रेम कीन्ही,
सेठ के अपार भयो हदय हुलास है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com