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मेरी मेवाड़यात्रा के समय इन महाराणा के सहायक होनेवाले, स्वदेशरक्षा के कार्य में उन्हें उत्साहित करनेवाले भामाशाह का नाम भी संसार में उतना ही प्रसिद्ध हो रहा है। संसार का कोई भी सच्चा इतिहासकार, महाराणा प्रताप के नाम के साथ, महामात्य भामाशाह का नाम कभी न भूलेगा और भूल भी नहीं सकेगा । महाराणा प्रताप के साथ ही, भामाशाह के सम्बन्ध में भी आजतक बहुत कुछ लिखा जा चुका है । अनेक इतिहासकारों, कवियों तथा नाटककारों ने, भामाशाह की स्वामिभक्ति और देशभक्ति की भूरि भूरि प्रशंसा की है । उन सब का उल्लेख करने का यह प्रसंग नहीं है। फिर भी, श्रीयुत केशरसींहजी बारहठ नामक एक कवि ने, अभी जो 'प्रताप चरित्र' प्रकाशित किया है, उसमें प्रताप तथा भामाशाह के संवाद का प्रसंग जिस सुन्दरता से वर्णन किया है उसे देखते हुए, उस स्थान के पद्यों के कुछ नमूने यहां उद्धृत करने का लोभ नहीं संवरण किया जा सकता ।
महाराणा प्रताप, धनहीन तथा साधन हीन हो कर, अपने प्यारे देश मेवाड़ का परित्याग करने की तयारी करते हैं। देश का त्याग करते समय भी, वे अपने स्वातन्त्र्य-प्रेम को नहीं छोड़ते और अपने साथियों से कहते हैं, कि"कुछ दिन इमि रहि दूर कहिं
स्थापहिं राज्य स्वतन्त्र । प्राण रहे तक नहिं रहे,
पत्ता तो परतन्त्र ॥ ७११ ॥"
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