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मेरी मेवाड़यात्रा
" नहिं चाले गाडाँ, रथ मतवालां, घोडा कम्पे
तेह |
जेह ॥
ज्याँ पोठी जावे, जव भर लावे, मक्की खावे "प्रदर्शन बेठा, भूखा रेवे, प्रभु गुण गावे मेवाडे देशे भूले चूके, मत करियो परवेश ॥
केम ?
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ऐसे अनेक पद्यों में, इस अनुभवी ह्रदय ने मेवाड की कठिनाइयाँ गा गाकर बतलाई हैं, और वस्तुतः मेवाड के गहरे भागों में उतरनेवाला मनुष्य, इन कठिनाइयों का अनुभव किये बिना नहीं
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रह सकता ।
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ये पहाड और पत्थर, जंगल और अरण्य, नदी और नाले, चोर तथा डाकू, एवं जो एक सामान्य बात भी न समझ सकें, ऐसे निरक्षर अज्ञानी जीव - मनुष्य, मेवाड़ के किसी किसी भागों में आज भी दिख पडते हैं । यह सत्य है, कि पिछले कुछ वर्षों से चोरों तथा डाकुओं का उपद्रव बहुत कम हो गया है, शेष बहुत सी बातों में उपर्युक्त कथन की सत्यता किसी अंशमें आज भी स्पष्ट दिख पडती है। मेवाड का उपर्युक्त वर्णन करनेवाले कवि ने भी, उदयपुर को तो उससे मुक्त ही रक्खा है । अन्त में उसने कहा है, कि"इण विध देश मेवाड का, यथायोग्य वरणाय । एक उदयपुर है भलो, देखत आवै दाय ॥
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