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________________ ६४ महावीर वर्धमान जाने पर मनुष्य मार्ग को ठीक-ठीक नहीं देख सकता, उसी प्रकार प्रमादी पुरुष न्याय-मार्ग को देखते हुए भी नहीं देखता। ८ उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायामज्जवभावेण, लोभं संतोसो जिणे ॥ (दशवकालिक ८.३९) अर्थ--शान्ति से क्रोध को जीते, नम्रता से अभिमान को जीते, सरलता से माया को जीते, और सन्तोष से लोभ को जीते। ६ अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ व ॥ (उत्तराध्ययन १.१५) अर्थ--सर्वप्रथम अपने आप का दमन करना चाहिए, यही सब से कठिन काम है ; अपने आप को दमन करनेवाला इस लोक में तथा परलोक में सुखी होता है। १० छंदं निरोहण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खियवम्मधारी। पुवाई वासाइं चरेऽप्पमत्ते, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥ (उत्तराध्ययन ४.८) अर्थ-जैसे सधा हुआ कवचधारी घोड़ा युद्ध में विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार मुनि दीर्घ काल तक अप्रमत्तरूप से संयम का पालन करता हुआ शीघ्र ही मोक्ष पाता है। ११ खिप्पं ण सक्केइ विवेगमेऊं, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034954
Book TitleMahavir Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalay
Publication Year1945
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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