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समानता-जन्म से जाति का विरोध
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धर्म-श्रवणकर कल्याण-पथ का पथिक बन सकता है । जिन का लोग पतित कहकर अनादर करते थे, जिन्हें धर्म-श्रवण का अनधिकारी मानते थे, जिन्हें उन के तथाकथित पेशे आदि के कारण धर्मपालन की मनाई थी, ऐसे पतितों, पीड़ितों और शोषितों को ऊँचे उठाकर महावीर ने निस्सन्देह जन-समाज का महान् कल्याण किया था। धनिकों और समृद्धिशालियों को महावीर का उपदेश था कि ऐ सांसारिक मनुष्यो! काम-भोगों से, भोग-विलास से कभी तृप्ति नहीं हो सकती, अतएव अपनी आवश्यकताओं को कम करो, अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रक्खो; सोना, चाँदी, गाय, बैल, खेत, गाड़ी, घोड़ा, वस्त्र, खान-पान, इतर-फुलेल, अलंकारआभूषण आदि जो तुम्हारे घर अपरिमित मात्रा में भरे पड़े हैं उन का परिमाणकर दूसरों को आराम पहुँचाओ जिस से अन्य लोग भी इन वस्तुओं का यथायोग्य उपभोग कर सकें। महावीर के पंचव्रतों में जो अपरिग्रह व्रत है उस का यही अर्थ है कि जहाँ तक हो अपनी आवश्यकताओं पर, मिथ्या वासनाओं पर अंकुश रक्खो; अहिंसक पुरुष संग्रहशील नहीं हो सकता, उस का तो समस्त संग्रह, सब धन-धान्य, रुपया-पैसा परोपकार के लिये है । दूसरों को भूखे मरते देखकर, नंगा देखकर वह शान्ति से नहीं बैठ सकता । जिस महावीर के प्रवचन में इतनी उदारता थी, प्राणिमात्र का दुख दूर करने की दृढ़ वृत्ति थी, उस में फिर जाति-पाँति का, छोटे-बड़े का और धनवान्-निर्धन का क्या भेद हो सकता है ? जैन शास्त्रों में भील और ब्राह्मण की एक कथा आती है-भील और ब्राह्मण दोनों शिव जी के भक्त थे। ब्राह्मण पत्र, पुष्प, गूगल, चंदन आदि से शिव जी की पूजा करता था जब कि भील के पास ये सब उत्तमोत्तम वस्तुएँ नहीं थीं, अतएव वह नाच गाकर ही भक्ति करता था। परन्तु फिर भी शिव जी भील को अधिक चाहते थे; ब्राह्मण ने इस का कारण पूछा । शिव जी ने
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