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________________ ( ४३२ ) जिनगुण स्तवन -और- उपदेशिकपद. अब हम. २ एकतो यह जङ अथीर विनाशी - दुजे रुप सरुपी जान, अब हम. तीने शुद्ध अशुद्ध प्रदेशी में हुं शुद्ध बोध परमान, अमल अनादि अरुपी अखंडित - में हुं निराबाध परमान, अवहम. ३ चिदानंद चेतन निज आतम - मेरो पद सिद्ध समान, अब हम. ४ [ गुरुभक्तिपर पद - भैरवी, ] परमगुरु. १ श्री विजयदेवसूरींदा - परमगुरु- श्री विजयदेव, ए टेर. aur inी अधिक विराजे - गुरु सेवे होत आनंदा, गुरु उपदेशी गुरु विद्याधर - गुरु दर्शनयी आनंदा, रामविजय कहे तहांलग प्रतिभा - सातसागर रविचंदा, परमगुरु, ३ परमगुरु, २ [ उपदेशिक पद-गजल, ] अनुकर्म. १ ( इश्कके जख्म लगे - उसका सिलाना मुश्किल ) इस चालपर, अट कर्म संग लगे-उनका छोडना मुश्किल, लाख चौरासी नर - देहका पाना मुश्किल, मोह ममताकी जडी-बेडीयां पगके अंदर, सीख सदगुरुकी बिना - उनका तोडाना मुश्किल, गुरुका उपदेश नसीबेसें हाथ आता है, धर्म में मीतलगा-ध्यान जमाना मुश्किल, कहे मुनि शांतिविजय - धर्मका बगिचा देखो, ऐसा फिर तुमकों यहां- दुसरा पाना मुश्किल, अष्टकर्म. २ अनुकर्म. ३ अष्टकर्म. ४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034925
Book TitleKitab Jain Tirth Guide
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages552
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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