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________________ ( ४२४ ) जिनगुण स्तवन-और-उपदेशिकपद. सिंधु १७ फुन संग्राम मारवो १८ देवे जानो, गौडी १९ उघडी रह्यो युगलमील श्रीह २० वखानो, सांजसमय दीपक २१ सुखद दोयघडी कल्यानहै, मुवो २३ चार कनडो २४ वसु प्रहर केदारो २५ गानहै, २ पंचम २६ प्रहरसवाह दोढ अडाणो २७ कहिये, तेरे घडी बिहाग २८ अर्द्ध खमायच २९ लहिये, दोयमहर दोयघडी सोरठी ३० मारु ३१ चारही, काफी ३२ फुन एरोड ३३ मालकोसी ३४ वसुधारही, कालिंगडो ३५ दसघडी रहे तापीछे जंगलो ३६ गीनो, आठ प्रहर खट तीस स्वर लेइवख्त प्रभुगुन तनो, ३ तीर्थकर रिषभदेव महाराजका स्तवन, (कालिंगडा,) पूजुमें आज रिषभचरनं, अरचुमें, एटेर. नवन प्रमार्जनमज्जन करके-विमलशिशभर आभरनं, पूजु, १ फलजल विविधकुसुमवरभेदे-करधरथालकनकवरनं, पूजुमे, २ द्रव्यभाव पूजन करी विघसे-करनकहेशिवसुखवरनं, पूजुमें, ३ तीर्थकर पार्श्वनाथ महाराजका स्तवन, (कालिंगडा) मंगलमूरत पारसकी-जियामंगल, एटेर, सेवत इंद्रचंद्र मुनिसुरवर-चाहतहै निजजासकी, जिआमंगल, १ धारन पंक सकल दुखहारी-दायकहै मुखरासकी, जियामंगल, २ निरखत नेनसफलभइआशा-करनचरनके दासकी, नियामंगल,३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034925
Book TitleKitab Jain Tirth Guide
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages552
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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