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(१४) पहले लिखा है और श्वेताम्बर कथाकारों ने पीछे। यदि कनकामर को उपर्युक्त वर्णन ज्ञात होता तो वे निश्चय उसे ही स्वीकार करते । श्वेताम्बर कथा में पद्मावती एक मुनि की सहायता से दन्तीपुर में पहुंची थी, वहां वह एक अर्जिकाश्रम में रही, उसने गुप्त रूप से पुत्र प्रसव किया और उसे श्मशान में जा डाला जहां एक चांडाल ने उसकी रक्षा की । कनकामर के वर्णन में, पद्मावती को वन से माली अपने घर ले गया था। वहां से निकाली जाकर उसने श्मशान में ही प्रसव किया था। पुनः, श्वेताम्बर कथा में करकण्डू के वाटधानक निवासी चांडालों को ब्राह्मण वनाने तथा एक अपने प्यारे सांड की वृद्धावस्था देखकर वैराग्य धारण करने का उल्लेख है जो कनकामर के वर्णन में नहीं है। पाली जातक में एक वृक्ष की दुरवस्था देखकर करण्डू को वैराग्य हुआ कहा गया है। कनकामर के अनुसार उन्हे एक पुत्रवियोग से विह्वल स्त्री को देखकर वैराग्य हुआ।
दिगम्बर साहित्य में उपर्युक्त चारों प्रत्येकबुद्धों का उल्लेख तो मुझे अभीतक देखने को नहीं मिला और न ऐसा ही कहीं पढा जहां करकण्डु को ही स्पष्टतः प्रत्येकबुद्ध कहा हो । पर प्रत्येकबुद्धों की महिमा के कुछ उल्लेख अवश्य देखने में आये हैं । उदाहरणार्थ, जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ में उन महात्माओं को अर्घ चढाया गया है जो अन्योपदेश के विना ही संयम की उच्च कोटि को पहुंच जाते हैं, और प्रत्येकवुद्ध-ऋद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। उनका थोड़ा सा स्मरण करने से भी पापों का नाश होता है ' (प्र.पा.६७२)। एक संस्कृत सुकुमाल चरित में कहा गया है कि अंगपूर्वप्रकीर्णकों की रचना गणधर, श्रुतकेवली प्रत्येकवुद्ध योगीन्द्रों ने की थी। कनकामर ने भी करकण्ड को कहीं प्रत्येकबुद्ध की संज्ञा नही दी। यह कथा दिगम्बर साहित्य में मुझे श्रीचंद्र-कृत कथाकोप, रामचन्द्र-मुमुक्षु-कृत पुण्याश्रवकथाकोष और नेमिदत्त-कृत आराधना-कथाकोप में भी देखने मिली है। वहां भी मेरी दृष्टि में प्रत्येकबुद्ध का उल्लेख नहीं आया। इस विषय का संस्कृत में एक पूरा ग्रंथ मेरे देखने में आया है। वह है करकण्डू चरित्र जिसे शुभचन्द्र ने सकलकीर्ति की सहायता से संवत् १६११ में रचा था। यह ग्रंथ संस्कृत पद्य में है और पन्द्रह सों में समाप्त हुआ है । कर्ता ने उसे ऐसे वचनों से प्रारम्भ और समाप्त किया है जिनसे जान पड़ता है कि वे एक स्वतंत्र ग्रंथ रचने का दावा करते हैं । पर मैने इस ग्रंथ का कनकामर के ग्रंथ से मिलान किया तो विदित हुआ कि वह इसका अनुवाद मात्र है । मूल कथा तो पूरी वैसी की वैसी है ही, अवान्तर कथायें भी वहां ज्यों की त्यों विद्यमान हैं। कर्ता ने सिद्धसेन समन्तभद्रादि का स्मरण तो अवश्य किया पर जिसके काव्य को साम्हने रखकर वे कीर्ति के ग्राहक बने उसका कहीं कुछ उल्लेख करने में न जाने क्यों लजा गये? इस ग्रंथ में भी प्रत्येकवुद्ध का उल्लेख देखने में नहीं आया। रैघू, जिनेन्द्रभूषण भट्टारक और श्रीदत्त पंडित कृत करकंडूचरितों का भी उल्लेख भंडारों की सूचियों में पाया जाता है।
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