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________________ (१०) नरवाहनदत्त की कथा संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध है। सोमदेवकृत कथासरिसागर, क्षेमेन्द्रकृत बृहत्कथामञ्जरी और बुद्धस्वामीकृत बृहत्कथा-श्लोकसंग्रह में यही कथा बड़े विस्तार से पाई जाती है। इसी कथा को सबसे पहले गुणाढ्य कवि ने पैशाची भाषा में अपनी बृहत्कथा में रचा था। यह पैशाची भाषा की वृहत्कथा अब नहीं मिलती। सम्भव है हमारे कवि के समय तक वह बृहत्कथा लुप्त न हुई हो और उसी के आधार पर उन्होने अपनी कथा लिखी हो, क्योंकि उपर्युक्त प्राप्य ग्रंथों की कथा से करकण्डचरित में लिखी गई कथा में कुछ भेद पड़ता है। इस कथा में मदोन्मत्त मदनामर विद्याधर के, एक ऋषिकन्या के शाप से, सुआ बन जाने की जो वार्ता कही गई है उससे हमें वाण कवि कृत कादम्बरी में महाश्वेता की कथा का स्मरण आये विना नहीं रहता। बाण ने भी अपनी कथा बृहत्कथा के आधार पर ही लिखी थी। __ नरवाहनदत्त की कथा के अन्तर्गत ही हमारी छठवीं अवान्तर कथा है [६, ४-७] जिस के द्वारा अपने पिता की मृत्यु के शोक से व्याकुल जरवाहनदत्त का एक मुनिराज ने सम्बोधन किया है। माधव और मधुसूदन भाई भाई थे, परन बड़ा वैर था। दिनों के फेर से माधव यहां तक दरिद्री हो गया कि उसे भोजन-वस्त्र का भी कष्ट होने लगा। माधव की स्त्री ने उसे मधुसूदन का आश्रय लेने की सलाह दी। पहले तो माधव ने अपने स्वाभिमान का ख्याल करके इन्कार कर दिया किन्तु पीछे स्त्री के समझाने पर और अपनी दुर्दशा से विह्वल होकर वह मान गया । मधुसूदन ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और उन्हे प्रेम से रक्खा, किन्तु माधव के हृदय की इर्षाग्नि शान्त न हुई। एक दिन वह घर से निकल भागा और प्रयाग में जाकर उसने यह निदान बांध कर, अनशन द्वारा, अपना प्राणान्त कर डाला कि मर कर मैं मधुसूदन के यहाँ पुत्र होऊँ और फिर उसका प्रेम बढाकर मर जाऊँ जिससे उसे घोर क्लेश हो। हुआ भी ऐसा ही । मधुसूदन पुत्रशोक में मरने को तत्पर होगया तब उसे एक विद्याधर ने माधव के पूर्वभव का हाल सुनाकर उसके चित्त को शान्त किया। इस प्रकार ये पितापुत्रादि सम्बंध सब निदान के कारण हैं इनमें हर्ष या शोक नही मानना चाहिये। सातवीं अवान्तर कथा (७, १-४) शुभ शकुन की है जिसे विद्याधर ने करकण्ड को सुनाई थी। एक दरिद्री ब्राह्मण को मार्ग में एक मुनि के दर्शन हुए जिससे वह खुशी के मारे नाचने लगा। एक क्षत्रिय कुमार घोड़े पर सवार वहां से निकला ओर उस ब्राह्मण को नाचते देख उसने हाल पूछा । ब्राह्मण ने कहा मुझे वन में मुनि-दर्शन का शुभ शकुन हुआ है जिसके फल स्वरूप मुझे राज्य मिलेगा। क्षत्रिय कुमार ने ब्राह्मण से कह सुन कर उस शकुन का फल आप ले लिया और बदले में अपना घोड़ा और आभूषण दे डाले। ब्राह्मण चला गया और क्षत्रिय कुमार ने वन में प्रवेश किया। वहां सुदर्शना देवी, स्त्री का रूप धर के, साथ हो गई। उन्होने एक अन्धकूप देखा जिसमें एक सांप और मेंडक लड़ रहे थे । युवक ने अपनी देह से एक मांस का टुकड़ा काटकर उनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034918
Book TitleKarkanda Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKankamar Muni
PublisherKaranja Jain Publication
Publication Year1934
Total Pages364
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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