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(५) तत्क्षण सेठ को फांसी का हुक्म सुना दिया। किन्तु उस होशयार सेट ने राजा का मार ला उपस्थित किया और इस प्रकार उस नीच चेटी और क्षुद्र राजा से अपना पिंड छुड़ाया। चौथी कथा (२, १५-१८ ) में, इसके विपरीत, उच्च संगति का सुफल बताया गया है। एक वार एक राजा शिकार के लिये वन में गया था । भटकत भटकते उसे खय भूख-प्यास लग आई, पर पास में कुछ न था। निदान उसकी भेट एक बनिये से होगई जिसने उसे तीन फल खिलाये और पानी पिलाया । राजधानी को लौटकर राजा न उस बनिये का बड़ा सन्मान किया, उसे अपना मंत्री बना लिया। बनिये की प्रीति एक वेश्या से थी। एकवार उसने राजकुमार को कहीं छिपा दिया, और उसके आभूषण ले जाकर उस वेश्या को दे दिय,
और कहा कि इन्हे मैं राजकुमार को मार कर लाया हूं। वेश्या ने अपने प्रेमी के हित की अभिलापा से कहा, यह यात मुझसे कही सो कही, और किसी से नहीं कहना। निदान गजकुमार की खोजबीन हुई और किसी ने राजा को यह खबर दे दी कि मंत्री ने उसके प्राण हरण किये हैं। इस पर राजा ने उस मंत्री को बुलाकर कहा-मैं प्रसन्न हुआ। आज तुम्हारे खिलाये हुए उन तीन फलों में से एक का ऋण चुक गया। अब दो फलों का ऋण
और वाकी रहा । राजा के ये वचन सुनकर मंत्री ने राजकुमार को ला उपस्थित किया और वे पुनः बड़े प्रेम से रहने लगे।
उपर्युक्त चारों कथाएँ, जान पड़ता है, कवि ने अपने समय की प्रचलित, लोकप्रिय किस्से कहानियों में से ली है । या सम्भव है वे स्वयं कवि की सूझ का परिणाम ही हो।
पांचवीं कथा कुछ बड़ी है । वह पूरी छठवीं सन्धि में समाप्त हुई है। इसे तेरापुर में एक विद्याधर ने मदनावली के हरण से विह्वल करकंडु को यह समझाने के लिये सुनाई थी कि पति-पत्नी के निराशजनक वियोग के पश्चात् भी उनका पुनः संयोग हो जाता है। नरवाहनदत्त वत्सदेश का राजा था। एकवार उसकी रानी मदनमञ्जपा को एक विद्याधर हर ले गया । शोक से विह्वल होकर राजा ने आत्मघात करने की ठान ली और वह पास ही के वन में गया। वहां उसकी भेंट एक विद्याधरी से हुई जिसका प्रेमी विद्याधर एक ऋषिकन्या के शाप से सुआ बन गया था। उस ऋषिकन्या ने दयालु होकर यह भी बतला दिया था कि जब नरवाहनदत्त का विवाह रतिविभ्रमा नामकी विद्याधरपुत्री से हो जायगा तब वह पुनः विद्याधर रूप पा जावेगा। यह सुनकर नरवाहन बड़े विस्मय में पड़ गये। इतने में ही वहां एक और विद्याधरी आई जो रतिविभ्रमा का चित्रपट लिये थी। उसने कहा कि रतिविभ्रमा ने अपने पिता द्वारा हरकर लाई हुई एक स्त्री से नरवाहनदत्त का नाम सुना है तभी से वह उनके लिये छटपटा रही है। फिर वह विद्याधरी नरवाहन को विजयाध पर्वत पर ले गई । वहां नरवाहन ने अपनी हरी गई पत्नी को भी पा लिया और रतिविभ्रमा तथा उसकी अनेक सखी सहेलियों के साथ विवाह कर लिया। फिर धीरे धीरे वे समस्त विद्याधरों के अधिपति वनगये ।
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