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________________ ( ५१ ) निवेदन हमारे प्राणाधार गुरुदेव तो अपने अमर सन्देश दे कर चले गए। अब उनके चमन की रखवाली का काम उनकी सुयोग्य शिष्य परम्परा ही के सुपुर्द है । हमारे आदरणीय महात्मा जैनाचार्य श्रीमद् विजयसमुद्र सुरि जी महाराज, जैनाचार्य श्रीमद् विजयउमंग सूरि जी महाराज, आगम-दिवाकर मुनि श्री पुण्यविजय जी महाराज तथा जैनाचार्य श्रीमद् विजयपूर्णानन्द सूरि जी महाराज जैसे सुयोग्य और विद्वान् संत अपने गुरुदेव के चमन को हरा भरा रखने के उद्यम में कभी पीछे नहीं रहेंगे हमें ऐसी पूर्ण आशा है । पिछले वर्ष सन् १६५५ के वार्षिक उत्सव पर हम ने गुरुदेव के सच्चे सेवक शांतमति जैनाचार्य श्रीमद् विजयसमुद्र सूरि जी महाराज की सेवा में अपना शुभ सन्देश भेजने की विनती की थी जिस पर उन्होंने अपना आशीर्वाद दे कर हमें कृतार्थ किया था सो वह सन्देश नीचे दिया जाता है। (२) सन्देश विजयानन्द सूरीशं, वल्लभं सद्गुरु तथा शिरसा वचसा वन्दे मनसा च मुदं तथा (१) श्री तीर्थपान्थरजसा विरजी भवन्ति, तीर्थेषु बंभमणतो न भवं भवन्ति तीर्थव्ययादिह नरास्थिरसंपदः स्यु, पूज्या भवन्ति जगदिश मया चयन्तः । तीर्थ यात्रा की धूलि के स्पर्श से मानव कर्म रूपी धूल से रहित होता है । तीर्थों में परिभ्रमण से मनुष्य संसार के परिभ्रमण का नाश करता है । तीर्थों में धन व्यय करने से मनुष्य की सम्पत्ति स्थिर हो जाती है और तीर्थकर की पूजा करने से पूजक पूज्य बन जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034917
Book TitleKangda Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantilal Jain
PublisherShwetambar Jain Kangda Tirth Yatra Sangh
Publication Year1956
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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