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(१५) था। इन्हों ने सपादलक्ष पर्वत के पहाड़ी राजाओं को पराजित करके उन्हें गत-गर्व किया था । श्वेताम्बर साधुओं पर इनका बड़ा प्रेम
और आदर था । अपने महल में पूर्वजों की स्थापित की हुई आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा के यह उपासक थे । राजा जी के बुलाने पर उपाध्याय जी संघ सहित दरबार में पहुँचे । राजा जी ने मस्तक झुका कर बड़े आदर के साथ उपाध्याय जी तथा मुनिराजों को प्रणाम किया इस पर गुरु महाराज ने निम्रन्थों का खजाना अपना सर्वस्व भत 'धर्म-लाम' दे कर आशीर्वाद दिया । फिर सभी लोग यथायोग्य स्थानों पर बैठ गये तो राजा नरेन्द्रचन्द्र ने महाराज श्री को कुशलक्षेम पूछा और श्रद्धापूर्वक वार्तालाप करने लगे । वहाँ पर राज-दरबार में कई ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जैनेतर विद्धान भी विराजमान थे उन्होंने भी गुरु महाराज से कुछ ज्ञान चर्चा की। एक काश्मीरी पंडित भी वहाँ पर पधारे हुए थे उन्हों ने कुछ समय तक गुरु महाराज से शास्त्रार्थ भी किया। उपाध्याय श्री के विद्वतापूर्ण उत्तर पा कर सभी गद्-गद् हो उठे और सभी ने महाराज श्री की भूरी भूरी प्रशंसा की। इसके बाद राजा ने अपना निजी देवागार दिखलाया जिस में स्फटिक
आदि विविध पदार्थों की बनी हुई तीर्थकर आदि अनेक देवों की मूर्तियां विराजमान थीं इस प्रकार दिन का बहुत मा भाग यहीं व्यतीत होने पर और अपने क्रिया कांड का समय होने पर महाराज श्री और संघ ने राजा जी से विदाई मांगी। उन्होंने भी यही उचित समझ कर उनका जाना स्वीकार कर लिया और फिर भी दर्शन देने की प्रार्थना की । इस प्रकार जैन-शासन का बहुमान करवा कर उपाध्याय जी स्वस्थान पर पहुंचे।
सप्तमी के रोज़ संघ की ओर से नगर और किले में चारों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com