SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३) में पहुँचा जो चौदहवीं शताब्दि में महाराजा रूपचन्द्र ने स्थापित किया था और जिसमें भगवान् श्री महावीर प्रभु की स्वर्ण प्रतिमा विराजमान की थी। यहाँ भी बड़े भावपूर्वक वन्दन नमस्कार करके संघ फिर देवल के दिखाये हुए मार्ग से आदियुगीन के भव्य मन्दिर में पहुँचा और प्रभु आदिनाथ का गुणगान करके अपने निवास स्थान पर जा पहुंचा। संवत् १४८४ की ज्येष्ठ शुदि पंचमी का यह शुभ दिन था जो कांगड़ा तीर्थ के इतिहास में सदा अमर रहेगा। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही संघ ने अपने उस पावन तीर्थ के दर्शनों के लिये प्रस्थान किया जिसके लिये वह इतना उत्सुक हो रहा था अतीव आनन्द और उत्साह के साथ चलते संघ अपनी आशाओं के सपने कङ्गदक नाम के किले के समीप आ पहुँचा और तीर्थ दर्शनों से गद्गद् हो उठा । चारों ओर जयजयकारों की ध्वनि उठने लगी। संघपति ने वहाँ इकट्ठ हुए याचकों को दान देकर प्रसन्न किया । इन दिनों यहाँ महाराजा सुशर्मचन्द्र के वंशज कटौच क्षत्रिय राजा नरेन्द्रचन्द्र राज्य करते थे । उन्होंने संघ को सम्मानपूर्वक किले से गुजर कर देव दर्शनों के लिये जाने की आज्ञा दे दी और रास्ते आदि की जानकारी के लिये अपने हेरंब नामक प्रतिहार को साथ भेजकर सुविधा प्रदान की। प्रतिहार के साथ चलते संघ ने रास्ते में आने वाले सांत द्वारों को पार किया और अपने निश्चित स्थान-भगवान श्री आदिनाथ के मन्दिर के द्वार पर आ पहुँचा । सब ने मिलकर, बड़े उत्साहपूर्वक, जयजयकारों के मध्य में भगवान् की मनोहर मूर्ति के दर्शन किये और अपने को धन्य माना । फिर प्रभु पूजन की तैय्यारियां होने लगीं। फल-फूल नैवेद्य आदि सुन्दर सुन्दर सामग्रियां इकट्ठी की गई और बड़े उल्लास से भगवान् का अभिषेक कराया गया और विधि सहित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034917
Book TitleKangda Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantilal Jain
PublisherShwetambar Jain Kangda Tirth Yatra Sangh
Publication Year1956
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy