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१४४ ] जिनप्रभसूरिनो [जिनप्रभसूरि अने दीधी-थंभावी दीधी. उपदेश थइ रह्या पछी सर्व श्रावको अने श्राविकाओ वांदीने पोताने घरे पहोंच्या. ते जोगणीओ आसनथी उठवा जाय छे, तो आसनने साथे लागेलुं ( चोंटेलु) जुए छे. ए जोइने फरीथी बेसी जाय छे. त्यारे सूरिजीए का के-श्राविकाओ ! ऋषिओने विहारभूमिनी ( भिक्षा माटे बहार जवानी ) वेळा थइ गइ छ, तमे वंदन करी ल्यो.” जोगणीओए जणाव्यु के-स्वामि! अम्हे तमने छळवा माटे आवी हती, परंतु तम्हे अमने छळी. प्रसाद करो, अम्हने मुक्त करो.' सूरिए कह्यु के-'जो तमे मने वचन आपो तो मुक्त करुं, नहि तो नहि. तेओ बोली के-' बोलो शी वाचा छे ? मूरिए का के-' जो म्हारा गच्छना सूरि(अधिपति)ओ तम्हारा जोगिणी-पीठ( १ उज्जेणी, २ दिल्ली, ३ अजयमेर दुर्ग अने ४ भरूच )मां जाय, तेने तमे उपद्रव न करो तो तमने मुक्त करूं.' जोगणीओए ते, ते प्रमाणे स्वीकार्यु. मुक्त करवामां आवतां ते पोतपोताना स्थानमा गइ. त्यारपछी आचार्यो सर्वत्र जाय छे, तेमने उपद्रव थतो नथी. त्यारथी ते जोगणीओ पोतानी वाचाथी बंधाइने रहे छे.'
१ आ योगिनीनो संबंधमां जैनाचार्योना पण केटलाक उल्लेखो तथा प्रसंगो छे.सुप्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य द्वन्याश्रय(चौलुक्यवंश) महाकाव्यना १४ मा सर्गमां सिद्धराज जयसिंहने अवन्ती(मालवा)नी योगिनी साथे थयेला संलापनो उल्लेख को छे.
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