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( १ ) जिन वचन में शङ्का न करे ।
( २ ) जिन मत के सिवाय अन्य किसी मत की वांछा ( इच्छा ) न करे ।
( ३ ) जिन मत की करणी (क्रिया) के फल में शङ्का न करे ।
( ४ ) किसी पाखण्डी आदि के मन्त्र, यन्त्र तन्त्रादि का चमत्कार, ऋद्धि, सत्कार, सन्मान, पूजा, भक्ति, इत्यादि देख कर मूढ़ दृष्टि न हो अर्थात् मन में जैन धर्म पर अनादर न लावे |
(५) गुणवन्त के गुणों की महिमा स्तुति करके वृद्धि करे । ( ६ ) यदि कोई धर्म से गिरता हो तो उसको हर एक उपाय से जैन धर्म में स्थिर करे ।
(७) जो अपना सधर्मी हो, चाहे वह किसी जाति का हो, उसकी अपने प्रिय कुटुम्बी से अधिक अशन ( भोजन ), वसनं (वस्त्र), पुष्प, तम्बोल, धन, धान, दान आदि से भक्ति करे, इसे वात्सल्य कहते हैं । इस प्रकार सधर्मी से वात्सल्यता करे ।
(८) तीर्थयात्रा, रथयात्रा आदि महोत्सव करे; पूजा, प्रभावना और सदाचार को ग्रहण करे; धर्मोपदेश करे, जिससे अरिहंत भाषित धर्म की प्रभावना हो ( जिसके करने से धर्म की दीपनावृद्धि हो, उसको प्रभावना कहते हैं ) ।
उक्त आठों आचार यथाशक्ति पालन करे । यह अविरति - सम्यग्दृष्टि श्रावक का धर्म संक्षेप से कहा है ।
२ देशविरति - देशविरति श्रावक का धर्म तीन प्रकार का
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