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________________ ८० चातुर्मास में लकड़ी के पाट पर और शेष आठ महीने भूमि पर शयन करे। ___ यदि कोई शत्रता करे तो उसका भी कल्याण चाहे । इत्यादि अनेक शुभ गुणों से संयुक्त जो पुरुष हो, उस पुरुष को जैन मत में साधु मानते हैं और उसका जो कर्तव्य है उसको साधु धर्म कहते हैं। __उक्त साधु धर्म का स्वरूप यहां पर संक्षेप रूप से कथन किया है। २ गृहस्थ धर्म गृहस्थ धर्म यह दो प्रकार का है-१ अविरति सम्यग्दृष्टि और २ देशविरति । १ अविरति सम्यग्दृष्टि-उसे कहते हैं जो किसी प्रकार की भी विरति (त्याग) नहीं कर सकता, परन्तु त्रिकाल अरिहन्त की पूजा करता है और आठ प्रकार के दर्शनाचार को निरतिचार ( निर्दोष रूप से) पालता है। वे आचार ये हैं 'चरेंदू माधुकरों वृत्तिम्..................। एकान्नं नैव भुञ्जीत बृहस्पति समादपि ॥" अर्थात्-मधुकर भौंरा जिस तरह अनेक फूलों पर बैठ कर उनमें से थोडा थोडा रस उनको हानि पहुँचाये बिना ले लेता है और तृप्त होता है, उसी तरह साधु को भी भिन्न भित्र घरों से आहार लेना चाहिये ताकि घरवालों को किसी तरह का कष्ट न हो। __आगे चल कर यहाँ तक स्पष्ट कहा है कि अगर ब्रहस्पति समान व्यक्ति भी हो तो भी उससे सम्पूर्ण भिक्षा नहीं लेनी चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034895
Book TitleJainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabh Smarak Nidhi
PublisherVallabh Smarak Nidhi
Publication Year1957
Total Pages98
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size7 MB
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