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अकिंचनता, ६ सत्य, ७ संयम, ८ तप, ९ शौच और १० ब्रह्मचर्य । यह दस प्रकार का यति धर्म पाले ।
४२ दूषण रहित भिक्षा ले । रात्रि को चारों आहार न करे ।
बासी न रखे, अर्थात कोई भी खाद्य पदार्थ अपने पास बचा कर न रखे । बिना कारण एक नगर में सदा न रहेx | चेली या श्रावक, श्राविका पर
किसी मकान तथा चेला, ममत्व न रखे ।
किसी प्रकार की भी सवारी न करे ।
पक्षी की तरह अपने धर्मोपकरण लेकर नङ्गे पावों से ग्राम व नगरों में विहार करके जगज्जन- चारों वर्णों को धर्मोपदेश करे । धर्म सुनने वालों से किसी प्रकार का चढ़ावा न ले ।
भिक्षा भी थोड़ी थोड़ी बहुत घरों से लेवे । । भिक्षा ऐसी ही ले, जिससे भिक्षा देने वाले को किसी प्रकार का कष्ट न हो ।
x जैन साधु चातुर्मास वर्षाऋतु के अतिरिक्त बाकी समय में एक नगर से दूसरे नगर धर्मोपदेश आदि के लिये विचरते रहते हैं, एक स्थान पर अधिक नहीं ठहरते । अन्य धर्मों में भी एसा ही विधान मिलता है । 'पर्यटे कीटवद् भूमि, वर्षास्वेकत्र संविशेत् । '
( विष्णुस्मृति अध्याय ४ श्लो० ६ ) अर्थात् - जैसे कीडा भूमि पर फिरता रहता है वेसे ही साधु को भी भी फिरते रहना चाहिये और वर्षाऋतु चौमासे में एक ही जगह पर रहे। + अन्य धर्म शास्त्रों में भी इससी पुष्टि कहा है:
होती है अत्रिस्मृति में
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