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(९) दर्शन सम्यक्त्व-अर्थात् वीतराग भगवान के कहे गये तत्त्वों पर निर्मल और दृढ़ श्रद्धा रखे ।
(१०) विनय पद-ज्ञानी और ज्ञान के उपकरण के प्रति विनय भाव रक्खे । इन दोनों मैं अतिचार दोष न लगावे ।
(११) चारिन्न पद-अवश्य करने योग्य संयम व्यापार में अतिचार-दोष न लगावे ।
(१२) मूल गुण* और उत्तर गुणों में अतिचार दोष न लगावे ।
(१२) क्षण, लवx, आदि काल में संवेग+ भावना एवं शुभ ध्यान में रहे।
(१४) तप करे। (१५) साधुओं को उचित दान दे।
* पांच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौथ, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये त्याग के प्रथम पाया-रूप--मूल भूत होने से इन्हें मूल-गुण या मूल व्रत कहते हैं।
उक्त मूल-व्रतों की रक्षा, पुष्टि एवं शुद्धि के लिये जो व्रत स्वीकार किये जाते हैं उन्हें उत्तर-गुण या उत्तर-व्रत कहते हैं।
* क्षण - एक घडी का छठा भाग।
x लव -सभय के एक सूक्ष्म परिमाण -- मुहूत्त के ७७ वें अंश कों लव कहते हैं। __+ सांसारिक बन्धनों का भय ही संवेग है, अर्थात् सांसारिक भोग जो वास्तव में सुख के बदले दु ख के ही साधन बनते हैं, उनसे डरते रहना अर्थान् कभी उनके लालच में न पडना संवेग है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com