SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१६) दस प्रकार की वैय्यावृत्या (सेवा ) करे। (१७) गुरु आदि के चित्त में कार्यकरण (वैयावश्च ) द्वारा समाधि उत्पन्न करे। (१८) अपूर्व ज्ञान ग्रहण करे। (१९) श्रुत भक्तियुक्त प्रवचन की प्रभावना करे और श्रुत का बहुमान करे। (२०) यथाशक्ति देशना, उपदेश और तीर्थ यात्रादि करके प्रवचन की प्रभावना करे। ___इन बीस कृत्यों में से एक, दो, तीन, चार, उत्कृष्ट (अधिक से अधिक ) वीस पद के सेवन-आचरण करने से जीव तीर्थङ्कर पद उपार्जन करता है । इस प्रकार ज्ञाता सूत्र में कहा है। जो जीव तीर्थङ्कर होता है उसे निर्वाण अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, वह जीव संसार में फिर नहीं आता । ___पूर्वोक्त धर्म कृत्यों को करके जितने तीर्थङ्कर हो चुके हैं और जितने भविष्य में होंगे, उनका ज्ञान और उपदेश परस्पर विरोधी नहीं होता बल्कि एक जैसा होता है। तीर्थङ्कर दो प्रकार के धर्म का उपदेश देते हैं: (१) श्रुत धर्म-जिसमें द्वादशांग-गणिपिडग का वर्णन करते है। वैय्यावृत्य सेवा रूप होने से जो सेवा योग्य हों एसे दस प्रकार के सेव्य-भेवा करने योग्य पात्रों के कारण इसके दस मेद है, सेवा करने योग्य ये दस हैं-१ आचार्य, २ उपाध्याय, ३ स्थविर, ४ तपस्वी, ५ ग्लान, ६ शैक्ष, ७ कुल, ८ गण, ९ संघ और १० साधर्मिक साधु)-ठाणांग मूत्र । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034895
Book TitleJainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabh Smarak Nidhi
PublisherVallabh Smarak Nidhi
Publication Year1957
Total Pages98
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy