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२-उत्सापणी काल के छः आरे (जो कि अवसर्पिणी से बिल्कुल उल्टे होते हैं )-(१) दुःखम दुःखम, (२) दुःखम, (३) दुःखम सुखम, (४) सुखम दुःखम, (५) सुखम और (६) सुखम सुखम अर्थात् एकान्त सुखम ।
इन छआरों से एक उत्सर्पिणी काल होता है । इसके बाद फिर अवसर्पिणी काल आता है। इसी प्रकार क्रमशः एक दूसरे के बाद होते रहते हैं, यह अनादि अनन्त काल की प्रवृत्ति है ।
तीर्थङ्कर कब होते हैं ? प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के तीसरे और चौथे आरे में चौबीस अर्हन्-तीर्थङ्कर अर्थात् सत्य धर्म के कथन करने वाले उत्पन्न होते हैं । जो जीव धर्म के बीस कृत्य करता है, वह भवान्तर में तीर्थङ्कर होता है । वे बीस कृत्य ये हैं:
तीर्थङ्कर के बीस कृत्य(१) अरिहन्त । (२) सिद्ध । (३) प्रवचन अर्थात् श्रुतवान ( चतुर्विध संघ । (४) धर्मोपदेष्टा, गुरु-आचार्य । (५) स्थविर । (६) बहुश्रुत (ज्ञानवान् , उपाध्यायादि)। (७) अनशन आदि विचित्र तप करने वाले तपस्वी साधुइन सातों से वात्सल्य करे अर्थात इनके साथ अनुराग करे, इनके यथावस्थि गुण अर्थात् यथार्थ में जो गुण हैं उनका कीर्तन करे और यथा योग्य पूजा भक्ति करे।
(८) पूर्वोक्त अरिहन्तादि सात पदों का बारम्बार ज्ञानोपयोग करे अर्थात् उनका स्वरूप अपने ज्ञान में बार-बार चिन्तवन करे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com