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और जहां विरोध दीखता हो उसको छोड देना चाहिये. इन भावनाओंके प्रचारसे ऐकता जैनियोंमेंही क्या किंतु सभी भारतवर्ष और पृथ्वी मंडलके मनुष्योंमें हो सकती हैं.
सज्जन महाशय, सभाओंका स्थापन करना और उनका बारबार एकत्रित होना ये सब ऐकता बढानेकेही तो कारण हैं. सभाओं से ही बडे बडे कार्य हुए हैं; सभामें बड़ी शक्ती रहती है. एकके अंकके पास दूसरा एकका अंक रखनेसे ग्यारा समझे जाते हैं; और तीसरा एकका अंक किर रखनेसे एकसो ग्यारा कहे जाते हैं. इनका पृथकरण करनेसे एक एक तीन करके रहजाते हैं. इस प्रकार अनेकोंका एकत्रित होने से संघशक्ती बडी भारी होजाती है. यह समझकर सभाओं मे संमिलित होकर ही उन्नति करनेमें सबको लगना चाहिये.
प्रिय सज्जनो, मैनें आपका बहुत बख्त लिया सो आप मुझे क्षमा करेंगे. लेकिन सभा में बहुतसे प्रस्ताव पास होते हैं उनकी अमलवारी होती नहीं इसीलिये बहुत से प्रस्ताव पास करने में कुछ फायदा नहीं ऐसा एक आक्षेप बांचनेमे आया सो कथंचित् सत्य है. प्रस्ताव पास हो जाने पर उसकी अमलवारी होजानेसे उसका फल जल्दी दृष्टीगोचर होगा इसमें संदेह नहीं. परंतु प्रस्ताव पास कियेबाद अमलवारी करनेको अपने पास सामग्री न हो तो भी प्रस्ताव पास करना निरर्थक नहीं है ऐसा मैं समझता हूं. क्योंकि, प्रतिवर्ष सभाओं के वार्षिक अधिवेशन में अथवा 'नैमित्तिक अधिवेशनमें जो प्रस्ताव आते हैं उन प्रस्तावोंको रखनेवाले, समर्थन करनेवाले अलग अलग पुरुष होते हैं. उन अलग अलग पुरुषोंके मुख से उस प्रस्तावके समर्थनकी दलीलें निकलती हैं इससे श्रोताओंको उस प्रस्तावपर अधिक विचार करनेका मौका मिलता है. कदाचित् उस बखत उसके अंतःकरणमें वह प्रस्ताव ठस भी जाता है, और वह अपने घर जानेपर यथाशक्ति कुछना कुछ अमलवारी भी करता है. इसलिये समामें जो कुछ कहा जाता है और सुना जाता है वह बिलकुल कार्यकारी नहीं है ऐसा नहीं है. उसका जो
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