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________________ ( ७१ ) शिलालेख से प्रगट है कि पल्लववंश के राजाओं से इनका धोर युद्ध हुआ था । यह ठीक ही है, क्योंकि अधिकांश पल्लव जैनी नहीं थे। भला ऋषभदेव जी की वंशपरम्परा इक्ष्वाकवंश में होकर, कादम्बराजा जैनधर्म की प्रभावना करने में रुक ही कैसे सकते थे। "श्री शांतिवर्मा, ""मृगेशवर्मा," "कृष्णवर्मा," प्रादि राजा इनमें प्रसिद्ध वीर थे। इस वंश की एक शाखा गोत्रा और हाल्शी में राज्याधिकारी थी। हाल्शी में नौकदम्ब राजात्रों ने इस्वी पाँचवीं शताब्दि में राज्य किया था । यह भी जैनधर्मानुयायी थे। ७-किन्हीं विद्वानों का कहना है कि “कुरुम्ब" नामक । जाति से कादम्बों की उत्पत्ति है, परन्तु यह ठीक नहीं अँचता क्योंकि कादम्बों के प्राचीन शिलालेख उन्हें क्षत्री-वीर प्रगट करते हैं । अतः कुरुम्बाधीश इनसे अलग ही गिने जाना चाहिये "कुरुम्ब लोग दक्षिण भारत के आदिम निवासियों में से हैं। यह पहाड़ों पर रह कर जंगली जीवन बिताते थे, किन्तु एक जनाचार्य ने इन्हें सभ्य बनाकर जैनधर्म में दीक्षित कर लिया था । उन्हीं की कृपा और अपने बाहुबल से यह टोन्डमण्डल के शासक बन बैठे । दुलल में इनकी राजधानी थी। जहां इन्होंने दर्शनीय जैनमन्दिर बनवाया था। जैनधर्म प्रचारक के लिये इन्होंने अपने पड़ोसी राज्यों से कई एक लड़ाइयाँ लड़ी थीं । इनका “कमण्डु कुरुम्ब प्रभु” नामक राजा प्रसिद्ध था। इसने अडोन्ड चोल से कई बार लड़ाइयाँ लड़ी थीं। कुरुम्ब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034885
Book TitleJain Viro ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherKamtaprasad Jain
Publication Year1930
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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