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________________ ( ४३ ) लोक भेज दिया था। इसके अतिरिक्त कुमारपाल को सपादलक्ष के राजा से भी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। चन्द्रावती का सरदार विक्रमसिंह भी कुमारपाल के विरुद्ध खड़ा हुआ था; किन्तु रणक्षेत्र में कुमारपाल के समक्ष उसे मुंहकी खानी पड़ी। इसके बाद कुमारपाल दिग्विजय के लिए निकले और उन्होंने मालवा के राजा को प्राण-रहित करके वहाँ अपना आतङ्क जमा दिया। उपरान्त चित्तौड़ को जांत कर, उन्होंने पञ्जाब और सिन्ध में अपना झण्डा फहराया । दक्षिण में कोकण प्रदेश को जीतने के लिए उन्होंने अपने सेनापति अम्बड़ को भेजा था, परन्तु वह वहाँ सफल न हुअा। इस कारण दूसरा आक्रमण करना पड़ा और परिणाम स्वरूप कोङ्कणप्रदेश सोलङ्की-साम्राज्य का एक अङ्ग बन गया । इस प्रकार जैन होने पर भी कुमारपाल ने अपनी साम्राज्यवृद्धि की थी। जैनधर्म की शरण में आने से कुमारपाल का वैयक्तिक जोवन एक नये ढाँचे में ढल गया था। जहां वह पहले नृशंसमांस- क्षक था; वहाँ वह अब दयालु और न्यायी निरामिष अाहारी हो गया । जैनधर्म के संसर्ग से वह एक बड़ा अहिंसक चीर बन गया । उसने जो युद्ध लड़े, वह न्याय का पक्ष लेकर। तथापि उसने 'अमारीघोष' एवं अन्य प्रकार से अहिंसाधर्म का विशेष प्रचार किया। यद्यपि उसने प्राणदण्ड उठा दिया था, परन्तु जीवहत्या करने वाले के लिए वही दण्ड लागू रक्खा था। मद्य, मांस, जुआ, शिकार प्रादि दुर्व्यसनों को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034885
Book TitleJain Viro ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherKamtaprasad Jain
Publication Year1930
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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