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________________ जैन-धर्म [ ७२ ] इसलिए अहिंसक का यह कर्तव्य है कि वह इन्द्रिय संयम व प्राणिसंयम का यथाशक्ति पालन करे और उतनी ही चीज़ों का भोग करे जितनी जीवन के लिए आवश्यक हैं व न्यायपूर्वक उपार्जन की गई हैं दूसरों को सता कर नहीं । आत्मसंयम का पालन न करने तथा इन्द्रियों के भोगोपभोगों में आनन्द समझ कर उनके वश होकर आत्मा से भिन्न वस्तुओं में मग्न होकर धनादि वस्तुओं में जो ममता का भाव तथा उनके संग्रह करने की लालसा और तृष्णा का भाव पैदा होता है वही परिग्रह नामक पांचवां पाप है, जो कि संसार में भीषण अशान्ति, विषमता, और संघर्ष का कारण होने से हिंसा का ही एक अङ्ग है । धन, दौलत, जमीन, राज्य, ऐश्वर्य आदि भौतिक पदार्थों की चाह के कुचक्र में फँसा हुआ और यह सोचता हुआ मनुष्य कि मैं ही सम्पूर्ण सम्पत्तियों का स्वामी बन जाऊँ, न जाने कितने और क्या २ पापों के करने में जुट जाता है । यह वह पाप है जो मनुष्य को न्याय-अन्याय, धर्मअधर्म, पुण्य-पाप, यश-अपयश, कर्त्तव्याकर्त्तव्य के विचारों से शून्य बनाकर रात दिन हाय २ व मोह माया के जाल में फँसा कर आत्मा की शान्ति को समूल नष्ट कर डालता है, और यही आत्महिंसा है तथा मनचाहा धन व साम्राज्यादि का स्वामी बनने के लिए जो दूसरों के साथ लूट खसोट, बेईमानी, . विश्वासघात, छलकपट, अत्याचार और आक्रमण आदि करने पर विवश होना पड़ता है, वह परहिंसा है । " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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