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________________ जैन-धर्म [७१ ] बर्बाद करने के लिए खतरे की घंटी है, जिसे सुनकर समय रहते दुनियां को तुरन्त सचेत हो जाना चाहिए। यदि मनुष्य, मनुष्य ही बना रहना चाहता है और अपना जीवन शान्ति पूर्वक बिताने के साथ २ संसार में भी शान्ति कायम रखना चाहता है तो इस पाशविक वृत्ति का उसे त्याग करना ही चाहिये और यह याद रखना चाहिये कि स्वच्छन्दता एवं उच्छृङ्खलतापूर्वक प्रवृत्ति करना हिंसाशून्य कार्य नहीं कहला सकता और न इससे संस्कृति तथा सभ्यता का विकास व आत्मोनति ही हो सकती । व्यभिचार में प्रवृत्ति कर स्वयं पतित होना आत्महिंसा और परस्त्री को पतित करना परहिंसा स्पष्ट है। अहिंसा की दृष्टि से संयम का पालन करना, अपनी इन्द्रियों व मन को वश में रखना, तथा हर प्राणी की रक्षा व उसके हित का ध्यान रखना भी परम आवश्यक है। असंयमी पुरुषों की इच्छा कभी भी तृप्त नहीं होने पाती। आत्मसंयम को न पालन करने वाला मनुष्य निरंतर ही असंतुष्ट रहा करता है और वह विषयों की पूर्ति के लिए न केवल स्वयं मारा मारा फिरता है, बल्कि दूसरों को सताने, उनके अधिकार और मुंह में से रोटी तक छीनने जैसे नीचता पूर्ण कार्यों के करने पर . भी तुल जाता है, जिसमें हिंसा और अधर्म का होना अनिवार्य है, और जहां यह है वहां सुख व शांति की कल्पना ? निरर्थक ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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