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________________ जैन धर्म [५५ ] पूर्वक धार्मिक जीवन व्यतीत करना चाहते हैं उन्हें चार प्रकार की हिंसा में से कम से कम संकल्पी हिंसा अर्थात् जान बूझ कर दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवों को सताने या मारने का त्याग अवश्य कर देना चाहिये । और चूंकि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति इन पांच स्थावर जीवों की गृहस्थ द्वारा संकल्पी हिंसा का त्याग होना कठिन है इस लिए आवश्यकता के बिना इनकी भी हिंसा न करना चाहिये और उनकी रक्षा का यथासंभव ध्यान रखना चाहिये। ऊपर यह बताया जा चुका है कि घर के कार्यों तथा व्यापारादि के करने में भी त्रस हिंसा होती है, किन्तु उन कार्यों के करने में मनुष्य का सीधा उद्देश्य हिंसा करना नहीं, बल्कि उस कार्य को करना है। अतः वह हिंसा संकल्पी नहीं है और न उसका त्याग ही गृहस्थ घर में रह कर कर सकता है । चूंकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में भी गृहस्थ को मोक्ष पुरुषार्थ का लक्ष्य रखते हुए धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों का सेवन करना गृहस्थाश्रम की दृष्टि से उचित व आवश्यक है और इनके सेवन किये बिना उसका जीवन सुव्यवस्थित नहीं रह सकता, इस लिये भी वहात्रस जीवों की संकल्पी हिंसा के सिवाय शेष हिंसाओं का त्यागी नहीं बन सकता। कोई मनुष्य घर में रहना चाहता है और गृहस्थी का भार भी लादे हुए है; किन्तु प्रतिदिन अपने सारे समय को दूसरों की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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