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________________ जैन-धर्म [ ५४ ] आपसी स्वाभाविक बैर विरोध का त्याग कर शान्ति के साथ उनके चरणों में जा बैठते हैं और उनकी दिव्य मूर्ति की ओर टकटकी लगाकर देखते रहते हैं। उनके दुश्मन, जो घर से अपने पूर्व बैर का बदला लेने के लिये नङ्गी तलवार लेकर सिर काटने उनके पास पहुँचते हैं, उनकी शान्त और वीतराग मुद्रा को देखकर काठ के पुतले की तरह हाथमें तलवार लिए।खड़े रहजाते हैं और उनका हाथ नहीं उठता । अन्तमें उन्हें उनकी सर्वतो मुखी अहिंसाके सामने नत मस्तक होकर शतमुख से उनकी स्तुति करना पड़ती है। क्यों ? इस लिए कि बहुगुण सम्पन्न वस्तु अल्प गुण वाली वस्तु पर अपना प्रभाव डाल कर उसे अपना जैसा बना लेती है, प्रकृति का यह अटल नियम है । जैसे समुद्र भर अमृत में दो चार बूंद विष भी अमृत रूप बन जाता है और उतने ही विष में थोड़ा सा अमृत विषमय बन जाता है, उसी प्रकार जिस महापुरुष की अन्तरात्मा में शुद्ध अहिंसा का अथाह समुद्र भरा हुआ है उसका प्रभाव यदि विद्वोषियों और विद्रोहियों की हिंसात्मक भावनाओ को कुंठित और हतप्रभ बनाकर यदि उन्हें भी अहिंसक और नम्र बनादे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? किन्तु संसार के सब मनुष्य घर बार छोड़ कर ऐसे साधु बन जायें और अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करने लगें यह सम्भव नहीं है क्यों कि वैसा करना बड़ी धीरता, वीरता, गंभीरता और साहस का काम है। अतः जो लोग पूर्ण पापों और गृह आदि की ममता छोड़ने में असमर्थ हैं व गृह में रह कर ही अणुव्रत पालन करते हुए शान्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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