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जैन-धर्म
[ १४ ] शान्ति किस भांति मिल सकती है, व हमारा क्या कर्त्तव्य है ?
आदि बातों पर कोई विचार तक नहीं करना चाहता। प्रत्युत् दूसरों को उल्लू बना कर अपना स्वार्थ कैसे साधा जाय, संसार की सारी सम्पत्ति पर किस भांति मैं ही अधिकार करके बैठ जाऊं, और मन व इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए सम्पूर्ण उत्तमोत्तम भौगोपभोग सम्बन्धी वस्तुओं की कैसे पूर्ति कर डालू ? आदि आदि अशांति, आकुलता, वासना और हाय २ मय विचारों में ही सम्पूर्ण मानव समाज निमग्न हो रहा है। धर्म और आत्मज्ञान से शून्य युवतियां व युवक मद और मदन मस्त बन कर खाने पीने मौज उड़ाने को ही अपना अन्तिम लक्ष्य बना विलासिता मय जीवन व्यतीत करने में ही अपने को कृत "कृत्य समझ रहे हैं, तथा धर्म कर्म के नाम को सुनते ही विदकते, नाक भों सिकोड़ते और मुंह मरोड़ते हुए कोई २ तो उन्हें निरा ढोंग
और पाखण्ड तक कह देने का साहस करने लगे हैं । “काई मरता है, तो मरे, जीता है तो जिये, हमें किसीसे क्या मतलब ? हमें तो अपने काम से काम" ये हैं स्वार्थान्धता पूर्ण नीच विचार, जो मनुष्यों के अन्तःकरण में घर करते जा रहे हैं, और पारस्परिक प्रेम, निःस्वार्थ सेवा, सुख दुख में सहानुभूति व सहायता के भाव हवा में उड़ते चले जा रहे हैं । जब मनुष्य का मनुष्य और भाई का भाई के साथ यह व्यवहार है तो पशु आदि प्राणियों के साथ उसके बर्ताव का अनुमान मर लेना काई कठिन बात नहीं। मनुष्य जाति का तीन चौथाई भाग निर्दयता पूर्वक पशु पक्षियों को
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