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________________ जैन-धर्म [ ११४ “Jainism thug appears an earliest faitis of India [ Intro P. 15 ] अर्थात् जैनधर्म की शुरूआत (प्रारम्भिक काल ) का पता पाना असंभव है। इस तरह भारत का सबसे प्राचीन धर्म यह जैनधर्म ही मालूम होता है। इस भांति प्राच्य और पाश्चात्य वर्तमान ऐतिहासिक विद्वान् प्रायः एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि जैनधर्म एक स्वतंत्र और मौलिक धर्म है और वह अत्यन्त प्राचीन है, जिसका प्रारम्भ ऐतिहासिक सीमा से परे है। इस सम्बन्ध में और भी प्रमाण उपस्थित किए जा सकते हैं, किन्तु हम उनसे पुस्तक का कलेवर न बढ़ाकर एक निष्पक्ष अजैन विद्वान् की जैनदर्शन के सम्बन्ध में सम्मति उद्धृत कर विराम लेंगे जिन्होंने कि तुलनात्मक रीति से संसार के धर्मों का अध्ययन किया है श्रीयुत् हरिसत्य भट्टाचार्य बी० ए०, बी० एल० अपने "भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन का स्थान" शीर्षक निबन्ध में लिखते हैं-"यह तो मानना ही पड़ेगा कि भारतवर्ष के यावतीय दार्शनिक मतवादों में इसका (जैनदर्शन का) एक गौरवमय स्थान अवश्य रहा है, और आज भी है। तत्व विद्या के यावतीय ( सम्पूर्ण) अङ्ग इसमें विद्यमान होने के कारण जैनदर्शन को एक सम्पूर्ण दर्शन मान लेने में कोई मतभेद नहीं होना चाहिये। वेदों में तर्क विद्या का उपदेश नहीं है, वैशेषिक कर्माकर्म या धर्माधर्म की शिक्षा नहीं देता; किंतु जैनदर्शन में न्याय, तत्वविचार, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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