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करता है। यह पत्र उसने ता० ३ सितंबर सन् १५६५ ईस्वी के दिन लाहौर से लिखा था उसमें उसने लिखा है- He follows the sect the Jains ( Vertic) "अर्थात् अकवर जैन सिद्धान्तों का अनुयायी है" ऐसा लिखकर उसने कई जैन सिद्धान्त भी उसमें लिखे हैं। इस पत्र के लिखने का वही समय है कि जिस समय विजयसेनसूरिजी लाहौर में अकबर के पास थे। श्री जगद्गुरुजी के धर्मोपदेश के प्रताप से ही सम्राट अकबर के विचारों में जो परिवर्तन हुआ था, उन पर प्रकाश डालते हुए अबुलफजल 'प्राइने अकबरी में लिखते हैं “अकबर कहताथा कि मेरे लिये कितनी सुख की बात होती यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि मांसहारी लोग केवल मेरे शरीरही को खाकर संतुष्ट होते और दूसरे जीवों का भक्षण न करते। अथवा मेरे शरीर का एक अंश काट कर मांसाहारियों को खिला देने के बाद यदी वह अंश वापिस प्राप्त होजाता तो भी मैं बहुत प्रसन्न होता । मैं अपने शरीर द्वारा मांसाहारियों को तृप्त कर सकता" (पाइने अकबरी खंड ३ रा पृष्ट ३६५) .
जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरिजी और आपके शिष्य प्रशिष्यों के ही उपदेश से सम्राट अकबर ने भारत में छै. महिना तक अहिंसा पलाई शत्रुजय श्रादि पाँच जैन तीयों के टेक्स माफ कर दिये; और यह सब तीर्थ जगद्गुरुजी को अर्पण किये, जजीया टेक्स माफ किया, गाय, भैस, बैल,
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