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सूरिजी ने सेठ थानसिंहजी और राजमान्य जौहरी दुर्जनमल्ल कृत प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई दोनों ने महान उत्सव किया और शान्तिचंदजी को उपाध्याय पद दिया गया वि० सं० १६४१ का चातुर्मासा सुरिजी ने फतेहपुर-सीकरी में किया वि० सं० १६४२ का अभिरामाबाद में और १६४३ का प्रागरा में चातुर्मास किया; जगद्गुरु जी ने पुनः २ बादशाह के पास जाकर जैन धर्म समझाया और बादशाह को जैन धर्म का अनुरागी बनाया; सम्राट अकबर को अहिंसा धर्म का और जैन धर्म का अनन्य अनुरागी बनाने का श्रेय श्रीहीरविजय सरिजी को ही है । आपके बाद आपके प्रशिष्य वर्ग ने और अन्य साधु समुह ने बादशाह को उपदेश दिया है। बादशाह ने उनका यथोचित सत्कार सम्मान भी किया है। किन्तु मुगल सम्राटों का दरबार जैन साधुनों के लिये खोलने का मान जगद्गुरूजी को ही है; और प्रथम के समर्थ उपदेशक को ही सम्राट अकबर को जैनधर्मका अनुरागी बनानेका मान मिल सकता है अन्य को नहीं।
सम्राट के दरबार में सुरिजी का महत्व का स्थान था इसलिये अबुलफजल ने अपनी पाइनेअकबरी में अकबर के दरबार के विद्वानों का पांच विभाग किया है। उसके प्रथम विभाग में श्री हीरविजयसूरिजी का नाम है, और पांचवे विभाग में आपके शिष्यरत्न श्री विजसेनसुरिजी का
और उ० श्री भानुचन्द्रजी का नाम है । जगदगुरुजी के सदुपदेश से अकबर के जीवन में जो परिवर्तन दुवा था । इनके लिये अल बदाउनी अपने ग्रंथ में लिख रहे हैं कि"बास तौर से
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