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________________ [ ७५ ] यगा, आप यहाँ तक लिख गये हैं कि 'एवं कृते न मिथ्यात्वं जौकिकाचारवर्तनात् ' अर्थात्, ऐसा करने से मि. व्यात्व का दोष नहीं लगता; क्योंकि यह तो लोकावार का वर्तना है। आपकी इस अद्भुत तर्कणा और अन्धभक्ति ना ही यह परिणाम है जो आप बिना विवेक के कितने ही विरुद्ध पाचरणों तथा मिथ्या क्रियाओं को अपने ग्रंथ में स्थान दे गये हैं, चौर इसी तरह पर कितनी ही देश, काल, इच्छा तथा शक्ति आदि पर निर्भर रहने वाली वैकल्पिक या स्थानिकादि बातों को सबके लिये अवश्य. करणीयता का रूप प्रदान कर गये हैं । परन्तु इन बातों को छोड़िये, यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि आदिपुराण में विवाहक्रिया का कयन, यद्यपि, सूत्ररूप से बहुत ही संक्षेप में दिया है परन्तु जो कुछ दिया है वह सार कथन है और त्रिवर्णाचार का कथन उससे बहुत कुछ विरोध को लिये हुए है । नीचे इस विरोध का ही कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है, जिसमें प्रसंगवश दो चार दूसरी बातें भी पाठकों के सामने आजाएँगी: १-भट्टारकजी, सामुद्रकशास्त्रादि के अनुसार विवाहयोग्य कन्या का वर्णन करते हुए, लिखते हैं इत्यं वक्षसंयुक्त पडष्टराशिवाताम् । वर्णविरुद्धसंस्यकां सुभगां कन्यकां वरेत् ॥ ३५ ॥ *इस पर्सन में 'सामुद्रक' के अनुसार कन्याओं अथवा स्त्रियोंके । जो लक्षण फल सहित दिये है वे फल दृष्टि से बहुत कुछ भापत्ति के योग्य-कितने ही प्रत्यक्षविरुद्ध हैं और कितने ही दूसरे सामुद्रक शास्त्रों के साथ विरोध को लिये हुए है-इन सर पर विचार करने का वहाँ अवसर नहीं है। इस लिये उनके विचार को छोड़ा जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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