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________________ [७४ ] (ड) त्रिवर्णाचार के ग्यारहवें अध्याय में, देतीस क्रियाभों में से सिर्फ 'विवाह' नामकी क्रिया का वर्णन है और उसका प्रारम्भ करते हुए एक पद्य निम्न प्रकार से दिया है: जिनसेनमुनि नत्वा वैवाहविधिमुत्लवम् । वक्ष्ये पुराणमार्गेण लौकिकाचारसिद्धये ॥२॥ इस पद्य में जिनसेन मुनि को नमस्कार करके पुराण अनुप्तार विवाह-विधि के कथन करने की प्रतिज्ञा की गई है और इ तरह पर-पूर्वप्रतिज्ञाओं की मौजूदगी में आवश्यकता न होते हुए भी इस प्रतिज्ञाद्वारा सविशेष रूप से यह घोषणा की गई है अथवा विश्व दिलाया गया है कि इस क्रिया का सब कथन भगवजिनसेन के श्रादि पुराणानुसार किया जाता है । परन्तु अध्याय के जब पत्र पलटते हैं । नक्शा बिलकुल ही बदला हुआ नज़र आता है और यह मालूम होने लगता है कि अध्याय में वर्णित अधिकांश बातों का आदिपुराण के सा प्रायः कोई सम्बन्धविशेष नहीं है । बहुतसी बातें हिन्दूधर्म व प्राचारविचार को लिये हुए हैं-हिन्दुओं की रीतियाँ, विधियाँ अथवा क्रियाएँ हैं-और कितनी ही लोक में इधर उधर प्रचलित अनावश्यक रूढियाँ हैं, जिन सब का एक बेढंगा संग्रह यहाँ पर किया गया है। इस संग्रह से भट्टारकजी का अभिप्राय उक्त प्रकार की सभी बातों को जैनियों के लिये शास्त्रसम्मत करार देने अथवा उन्हें जैनों की शास्त्राज्ञा प्राप्त करा देने का जान पड़ता है, और यह बात आपके 'लौकिकाचारसिद्धये' पद से भी ध्वनित होती है । आप 'लौकिकाचार' के बड़े ही अन्ध भक्त थे ऐसा जान पड़ता है, बूढ़ी स्त्रियाँ जो कुछ बतलाएँ उन सब क्रियाओं तक को बिना चू चरा करने की आपने परवानगी दी है और एक दूसरी जगह तो, जिसका विचार भागे किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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