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________________ [ ६२ ] यहाँ पर मैं त्रिवर्णाचार की एक दूसरी विलक्षण पूजा का भी उल्लेख कर देना उचित समझता हूँ, और वह है 'योनिस्थ देवता' की पूजा ।. भट्टारकजी ने, गर्भाधान क्रिया का विधान करते हुए, इस अपूर्व अथवा अश्रुतपूर्व देवता की पूजा का जो मंत्र दिया है वह इस प्रकार है__ ऊँ ह्रीं क्लीं ब्लूँ योनिस्थदेवते मम सत्पुत्रं जनयख असिग्राउसा स्वाहा। इस मंत्र में यह प्रार्थना की गई है कि 'हे योनिस्थान में बैठे हुए देवता ! मेरे सत्पुत्र पैदा करो ।' भट्टारकजी लिखते हैं कि 'यह मंत्र पढ़कर गोबर, गोमूत्र, दूध, दही, घी कुश ( दर्भ ) और जल से योनिका अच्छी तरह से प्रक्षालन करे और फिर उसके ऊपर चंदन, केसर तथा कस्तूरी आदि का लेप कर देवे । यथा'इति मंत्रेण गोमयगोमूत्रक्षीरदधिसर्पिःकुशोदकैयोनि सम्प्रक्षाल्य श्रीगंधकुंकुमकस्तूरिकाद्यनुलेपनं कुर्यात् ।' यही योनिस्थ देवता का सप्रक्षाल पूजन है । और इससे यह गालूम होता है कि भट्टारकजी ऐसा मानते थे कि स्त्री के योनि स्थान में किसी देवता का निवास है, जो प्रार्थना करने पर प्रार्थी से अपनी पूजा लेकर उसके लिये पुत्र पैदा कर देता है । परन्तु जैनधर्म की ऐसी शिक्षा नहीं है और न जैनमतानुसार ऐसे किसी देवता का अस्तित्व या व्यक्तित्व ही माना जाता है। ये सब वाममार्गियों अथवा शाक्तिकों जैसी बातें हैं । भट्टारकजी ने सम्भवतः उन्हीं का अनुकरण किया है, उन्हीं जैसी शिक्षा को समाज में प्रचारित करना चाहा है, और इसलिये 'गर्भाधान' क्रिया में आपका यह पूजन-विधान महज़ प्रतिज्ञा-विरोध को ही लिये हुये नहीं है बल्कि जैनधर्म और जैननीति के भी विरुद्ध है, और आपके इस क्रिया मंत्र को अधर्य मंत्र समझना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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