SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [६१ ] पु[५]त्रिये च श्रवणत्रय च, विद्यासमारम्भमुशन्तिसिद्धथै ॥ १६५ उदग्गते भास्वति पंचमेऽन्दे, प्राप्तेऽक्षरस्वीकरणं शिशूनाम् । सरस्वती क्षेत्रसुपालकं च, गुडौदनाद्यैरभिपूज्य कुर्यात् ॥ १६६ ॥ इनमें से पहला पद्य ' श्रीपति' का और दूसरा ' वशिष्ठ अपि का वचन है । मुहूर्त चिन्तामणि की पीयूषधारा टीक! में भी ये इन्हीं विद्वानों के नाम से उद्धृत पाये जाते हैं । दूसरे पद्य में 'विनविनायक' की जगह क्षेत्रसुपालक' का परिवर्तन किया गया है और उसके द्वारा ' गणेशजी' के स्थान में क्षेत्रपाल' की गुड़ और चावल वगैरह से पूजा की व्यवस्था की गई है। क्षेत्रपाल की यह पूजन-व्यवस्था आदिपुराण के विरुद्ध है । इसीतरह पर दूसरी क्रियाओं के वर्णन में जो यक्ष, यती, दिकपाल और जयादिदेवताओं के पूजन का विधान किया गया है, बाथका 'पूर्ववत्पूजयेत्' 'पूर्ववद् होमं पूजां च कृत्वा' अादि वाक्यों के द्वारा इसीप्रकार के दूसरे देवताओं की भी पूजा का-जिसका वर्णन चौथे पाँचवें अध्यायों में है-जो इशारा किया गया है वह सब मी आदि. पुगण के विरुद्ध है । अादि पुगण में भगवजिनसेन ने. गर्भाधानादिक क्रियाओं के अवसर पर, इसप्रकार के देवी देवताओं के पूजन की कोई व्यवस्था नहीं की। उन्होंने आमतौर पर सब कियाओं में 'मिद्धों' का पूजन रक्खा है, जो पाटिका' मंत्रों द्वारा किया जाता है + । बहुतसी क्रियाओं में अर्हन्तों का, देवगुरु का और किसी में आचार्यों आदि का पूजन भी बतलाया है, जिसका विशेष हाल आदिपुराण के ३८ वें और ४० वें पत्रों को देखने से मालग हो सकता है । + यथा: एतैः (पीठिका मः) सिद्धार्चनं कुर्यादाधानादि क्रियाविधौ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy