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________________ [४६ ] सत्पुरुषों के सामने हमारी काव्यरचना को उद्दीपित ( प्रकाशित ) करते हैं' । परन्तु उन्होंने, अपने ग्रंथ में, जब स्वकीय और परकीय पद्यों का प्रायः कोई भेद नहीं रक्खा तब ग्रंथ के कौन से पद्यों को 'दीपक' और कौनसों को उनके द्वार। 'उद्दीपित' समझा जाय, यह कुछ समझ में नहीं आता । साधारण पाठक तो उन दस पाँच पद्यों को छोड़कर जिन्हें 'उक्तंच'. 'मतान्तरं' तथा 'अन्यमतम्' आदि नामों से उल्लेखित किया गया है और जिनका उक्त संग्रह में कोई खास जिक्र भी नहीं किया गया अथवा ज़्यादा से ज़्यादा कुछ परिचित पद्यों को भी उनमें शामिल करके, शेष सब पद्यों को भट्टारकजी की ही रचना समझते हैं और उन्हीं के नाम से उनका उल्लेख भी करते हुए देखे जाते हैं। क्या यही भट्टारकजी की काव्यरचना का सच्चा उद्दीपन है ? अथवा पाठकों में ऐसी गलत समझ उत्पन्न करके काव्यकीर्ति का लाभ उठाना ही इसका एक उद्देश्य है ? मैं तो समझता हूँ पिछली बात ही ठीक है और इसीसे उन पद्यों के साथ में उनके लेखकों अथवा ग्रंथों का नाम नहीं दिया गया और न दूसरी ही ऐसी कोई सूचना साथ में की गई जिससे वे पढ़ते हैं। पुरातन पद्य समझ लिये जाते । पद्य के उत्तरार्ध में भट्टारकजी, अपनी कुछ चिन्तासी व्यक्त करते हुए, लिखते हैं-'यदि मैं नाना शास्त्रों के मतान्तर की नवीनप्राय रचना करता तो इस ग्रंथ का तेज पड़ता-अथवा यह मान्य होता-इसकी मुझे कहाँ आशा थी। और फिर इसके अनन्तर ही प्रकट करते हैं-'इसीलिये कुछ सुधीजन 'प्रयोगंवद' होते हैं-प्राचीन प्रयोगों का उल्लेख करदेना ही उचित समझते हैं * ।' * पं० पन्नालालजी सोनी ने इस पद्य के उत्तरार्ध का अनुवाद बड़ा ही विलक्षण किया है और वह इस प्रकार है " यद्यपि मैंने अनेक शास्त्र और मतों से सार लेकर इस नवीन शास्त्र की रचना की है, उनके सामने इसका प्रकाश पड़ेगा यह माशा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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