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________________ [ ४५] थे और यह बात अजैन विद्वानों के वाक्यों के साथ उनका अथवा उनके ग्रन्थों का नाम देदेने से नहीं बन सकती थी, जैनी जन उसे मान्य न करते । दूसरे यह कि, वे मुफ्त में अल्प परिश्रा से ही काव्य. कीर्ति भी कमाना चाहते थे--दूसरे कवियों की कृतियों को अपनी कृति प्रकट करके, सहज ही में एक अच्छे कवि का पद तथा सम्मान प्राप्त करने की उनकी इच्छा थी--और वह इच्छा पूरी नहीं हो सकती थी यदि सभी उद्धृत पद-वाक्यों के साथ में दूसरे विद्वानों के नाग देदिये जाते । तब तो आपकी निजकी कृति प्रायः कुछ भी न रहती अथवा यो कहिये कि गहत्वशून्य और तेजाहीनसी दिखलाई पड़ती । अतः मुख्यतया इन दोनों चित्तवृत्तियों से अभिभूत होकर ही आप ऐसा हीनाचरण करने में प्रवृत हुए हैं, जो एक मत्कवि के लिये कभी शोभा नहीं देना, बल्कि उलटा ल जा तथा शर्मा का स्थानक होता है । शायद इस ल जा तथा शर्म को उतारने या उमका कछु परिमार्जन करने के लिये ही भट्टारकजी ने ग्रन्थ के अन्त में, उसकी समाप्ति के बाद, एक पद्य निम्न प्रकार से दिया है श्लोका येऽत्रपुरातना विलिखिता आस्माभिरन्धर्थतस्तदीपा इव सत्सु काव्यरचनामुद्दीपयन्ने परम् । नानाशास्त्रमतान्तरं यदि नवं प्रायोऽकरिष्यं त्वहम् काशा माऽस्य महस्तदेति सुधियः कचित्प्रयागंवदाः ।। इस पद्य से जहाँ यह सूचना मिलती है कि ग्रंथ में कुछ पुरातन पद्य भी लिखे गये हैं वहाँ ग्रंथकार का उन पुरातन पद्या के सहारे से अपनी काव्यरचना को उद्योतित करने अथवा काव्यकीर्ति कमाने का वह भाव भी बहुत कुछ व्यक्त हो जाता है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। भट्टारकजी पद्य के पूर्वार्ध में लिखते हैं-'हमने इस ग्रन्थ में, प्रकरणानुसार, जिन पुरातन श्लोकों को लिखा है वे दीपक की तरह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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