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________________ [ ३२ ] है और इस श्लोक में गृहस्थ के लिये मलमूत्र के त्याग समय यज्ञोपवीत को बाएँ कान पर रखकर पीठ की तरफ लम्बायमान करने का विधान किया गया है परन्तु पं० पन्नालालजी सोनी ने ऐसा नहीं समझा और इसलिये उन्होंने इस पद्य के विषय को विभिन्न व्यक्तियों (व्रती-भवती ) में बाँटकर इसका निम्न प्रकार से अनुवाद किया है "" गृहस्थजन अपने यज्ञोपवीत (जनेऊ) को गर्दन के सहारे से पीठ पीछे लटकाकर टट्टी पेशाब करे और व्रती श्रावक बाएँ कान में लगाकर टट्टी पेशाब करे ।" इससे मालूम होता है कि सोनीजी ने यज्ञोपवीत दीक्षा से दीक्षित व्यक्ति को ' अवती' भी समझा है । परन्तु भगवज्जिनसेनाचार्य ने तो 'व्रतचिह्नं दधत्सूत्रं ' आदि वाक्यों के द्वारा यज्ञोपवीत को व्रतचिह्न बतलाया है तब सर्वथा 'अवती' के विषय में जनेऊ की कल्पना कैसी ? परन्तु इसे भी छोड़िये, सोनीजी इतना भी नहीं समझ सके कि जब इस पद्य के द्वारा यह विधान किया जारहा है कि व्रती श्रावक तो जनेऊ को बाएँ कान पर रखकर और अती उसे योंही पीठ पीछे लटका कर टट्टी पेशात्र करे तो फिर अगले पद्य में यह विधान किसके लिये किया गया है कि जनेऊ को पेशाब के समय तो दाहिने कान पर और टट्टी के समय बाएँ कान पर टाँगना चाहिये । यही वजह है जो आप इन दोनों पद्यों के पारस्परिक विरोध का कोई स्पष्टीकरण भी अपने अनुवाद में नहीं करसके । अस्तु; वह अगला पद्य इस प्रकार है मूत्रे तु दक्षिणे कर्णे पुरीषे वामकर्णके । धारयेद्ब्रह्मसूत्रं तु मैथुने मस्तके तथा ॥ २८ ॥ इस पद्य का पूर्वार्ध, जो पहले पद्य के साथ कुछ विरोध उत्पन्न करता है, वास्तव में एक दूसरे विद्वान का वचन है । आन्हिक सूत्रावलि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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