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________________ [३१] स्मृतिकार ने, श्रावण भादों में सब नदियों को रजस्वला बतलाते हुए, यह प्रतिपादन किया था कि 'उनमें (समुद्रगामिनी नदियों को छोड़कर) स्लान न करना चाहिये ।' भट्टारकजी ने इसकी जगह, अपने परिवर्तन द्वारा, यह विधान किया है कि उनके तट पर न करना चाहिये ।' परंतु क्या न करना चाहिये, यह उक्त पद्य से कुछ जाहिर नहीं होता । हाँ, इससे पूर्व पद्य नं. ७७ में आपने तीर्थ तट पर प्राणायाम, प्राचमन, संध्या, श्राद्ध और पिण्डदान करने का विधान किया है और इसलिये उक्त पद्य के साथ संगति मिलाने से यह अर्थ हो जाता है कि ये प्राणायाम आदि की क्रियाएँ रजस्वला नदियों के तट पर नहीं करनी चाहिये-भले ही उनमें स्नान कर लिया जाय । परन्तु ऐसा विधान कुछ समीचीन अथवा सहेतुक मालूम नहीं होता और इसलिये इसे भट्टारकजी के परिवर्तन की है। खूबी समझना चाहिये । तीसरे परिवर्तन की हालत भी ऐसी ही है । स्मृतिकार ने जहाँ 'प्रेतस्नान' के अवसर पर नदी का रजस्वला दोष न मानने की बात कही है वहाँ मापने 'प्रातः स्नान के लिये रजस्वला दोष न मानने का विधान कर दिया है ! स्लान प्रधानतः प्रातःकाल ही किया जाता है, उसीकी मापने छुट्टी देदी है, और इसलिये यह कहना कि आपके इस परिवर्तन में स्नान के विषय में नदियों के रजस्वला दोष को ही प्रायः उठा दिया है कुछ भी अनुचित न होगा । कृत्वा यज्ञोपवीतं च पृष्ठतः कण्ठलम्बितम् । विएमत्रेतु गृही कुर्यादामकर्णे बतान्धितः ॥२-२७ ।। यह 'अंगिरा ऋषि की बचन है । 'मान्हिकसूत्रावलि' में मी इसे अंगिरा का वचन लिखा है । इसमें समाहितः' की जगह 'ब्रतान्वितः' का परिवर्तन किया गया है और वह निरर्थक जान परता है। यहाँ 'ब्रतान्वितः' पद यद्यपि 'गृही' पद का विशेषण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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