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इस धोखे से सावधान करने के लिये ही यह परीक्षा की जारही है और यथार्थ वस्तुस्थिति को पाठकों के सामने रखने का यत्न किया जाता है । अस्तु ।
अत्र उस संग्रह की भी बानगी लीजिये जो अजैन विद्वानों के ग्रंथों से किया गया है और जिसके विषय की न कहीं कोई प्रतिज्ञा और न तत्सम्बंधी विद्वानों के नामादिक की कहीं कोई सूचना ही ग्रंथ में पाई जाती है। प्रत्युत इसके, जैन साहित्य के साथ मिलाकर अथवा जैनाचार्यों के वाक्यानुसार बतलाकर, उसे भी जैनसः हित्य प्रकट किया गया है।
जैन ग्रंथों से संग्रह ।
( १२ ) जैन विद्वानों के ग्रंथों से जो विशाल संग्रह भट्टारकजी ने इस ग्रंथ में किया है - उनके सैंकड़ों पद वाक्यों को व्यों का त्यों श्रथवा कुछ परिवर्तन के साथ उठाकर रक्खा है - उस सबका पूरा परिचय यदि यहाँ दिया जाय तो लेख बहुत बढ़ जाय, और मुझे उनमें से कितने है। पद-वाक्यों को आगे चलकर, विरुद्ध कथनों के अवसर पर, दिखलाना है - वहाँ पर उनका परिचय पाठकों को मिलेगा ही । अतः यहाँ पर नमूने के तौर पर, कुछ थोड़े से है। पयें। का परिचय दिया जाता है— सन्तुष्ट भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वैध्रुवम् ॥ ८-४६ ॥
यह पद्य, जिसमें भार्या से भर्तार के और भर्तार से भार्या के नित्य सन्तुष्ट रहने पर कुल में सुनिश्चित रूप से वल्याण का विधान किया गया है, 'मनु' का वचन है, और 'मनुस्मृति' के तीसरे अध्याय में नं ० ६० पर दर्ज है। वहीं से ज्यों का त्यों उठाकर रक्खा गया मालूम होता है ।
मांत्र मौमं तथाऽग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च ।
वारुणं मानसं चैव सप्तस्नानान्यनुक्रमात् ॥ ३-५२ ॥
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