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________________ [२८] स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा कषायवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ॥ १०-७४ ॥ यह पद्य 'राजवार्तिक' के ७ वें अध्याय में 'उक्तं च' रूप से दिया हुआ है और इसलिये किसी प्राचीन ग्रंथ का पद्य जान पड़ता है। हाँ, राजवार्तिक में 'कषायवान्' की जगह 'प्रमादवान्' पाठ पाया जाता है, इतना ही दोनों में अन्तर है। यह तो हुई जैनग्रंथों से संग्रह की बात, और इसमें उन जैनविद्वानों के वाक्यसंग्रह का ही दिग्दर्शन नहीं हुआ जिनके ग्रंथों को देखकर उनके अनुसार कथन करने की-न कि उनके शब्दों को उठा कर ग्रंथ का अंग बनाने की प्रतिज्ञाएँ अथवा सूचनाएँ की गई थीं बल्कि उन जैन विद्वानों के वाक्यसंग्रह का भी दिग्दर्शन होगया जिनके वाक्यानुसार कथन करने की बात तो दूर रही, ग्रंथ में उनका कहीं नामोल्लेख तक भी नहीं है । नं. ६ के बाद के सभी उल्लेख ऐसे ही विद्वानों के वाक्य-संग्रह को लिये हुए हैं। यहाँ पर इतना और भी बतला देना उचित मालूम होता है कि इस संपूर्ण जैनसंग्रह में ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार जैसे दो एक समकक्ष ग्रंथों को छोड़कर शेष ग्रंथों से जो कुछ संग्रह किया गया है वह उस क्रियाकांड तथा विचारसमूह के साथ प्रायः कोई खास मेल अथवा सम्बंधविशेष नहीं रखता जिसके प्रचार अथवा प्रसार को लक्ष्य में रखकर ही इस त्रिवर्णाचार का अवतार हुआ है और जो बहुत कुछ दूषित, त्रुटिपूर्ण तथा आपत्ति के योग्य है । उसे बहुधा त्रिवर्णाचार के मूल अभिप्रेतों या प्रधानतः प्रतिपाद्य विषयों के प्रचारादि का साधनमात्र समझना चाहिये अथवा यों कहना चाहिये कि वह खोटे, जाली तथा अल्प मूल्य सिकों को चलाने के लिये उनमें खरे, गैर जाली तथा बहुमूल्य सिक्कों का संमिश्रण है और कहीं कहीं मुलम्मे का काम भी देता है, और इसलिये एक प्रकार का धोखा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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