SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० हो और इस तरह पर यह ग्रन्थ भी एक जाली ग्रन्थ बना हो। परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, यह ग्रन्थ कोई महत्वका ग्रन्थ नहीं है। इसमें बहुतसे कथन ऐसे भी पाए जाते हैं जो जैनधर्मके विरुद्ध हैं, अथवा जैनसिद्धान्तोंसे जिनका कोई मेल नहीं है। चूंकि यह लेख सिर्फ ग्रन्थकी ऐतिहासिकता---ग्रन्थकर्ता और ग्रन्थके बननेका समयनिर्णय करनेके लिए ही लिखा गया है इस लिए यहाँ पर विरुद्ध कथनोंके उल्लेखको छोडा जाता है। इस प्रकारके विरुद्ध कथन और भी प्रतिष्ठापाठोंमें पाए जाते हैं। जिन सबकी विस्तृत आलोचना होनेकी ज़रूरत है। अवसर मिलने पर प्रतिष्ठापाठोंके विषय पर एक स्वतंत्र लेख लिखा जायगा और उसमें यह भी दिखलाया जायगा कि उनका वह कथन कहाँ तक जैनधर्मके अनुकुल या प्रतिकूल है। देवबन्द । ता० २६ मार्च, सन् १९१७ पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच । -:: सन् १९०४ में, 'पूज्यपाद' आचार्यका बनाया हुआ 'उपासकाचार' नामका एक संस्कृत ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। उसे कोल्हापुरके पंडित श्रीयुत कलापा भरमापाजी निटवेने, मराठी पद्यानुवाद और मराठी अर्थसहित, अपने 'जैनेंद्र ' छापाखानेमें छापकर प्रकाशित किया था। जिस समय ग्रन्थकी यह छपी हुई प्रति मेरे देखनेमें आई तो मुझे इसके कितनेही पद्योंपर संदेह हुआ और यह इच्छा पैदा हुई कि इसके पद्योंकी जाँच की जाय, और यह मालूम किया जाय कि यह ग्रन्थ कौनसे पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है । तभीसे मेरी इस विषयकी खोज जारी है । और उस खोजसे अबतक जो कुछ नतीजा निकला है उसे प्रकट करनेके लिये ही यह लेख लिखा जाता है। __ सबसे पहले मुझे देहलीके 'नया मंदिर' के शास्त्र-भंडारमें इस ग्रन्थकी हस्तलिखित प्रतिका पता चला। इस प्रतिके साथ छपी हुई प्रतिका जो मिलान किया गया तो उससे मालूम हुआ कि उसमें छपी हुई प्रतिके निम्नलिखित छह श्लोक नहीं हैं पूर्वापरविरोधादिदूर हिंसाद्यपासनम् । प्रमाणद्वयसंवादि शास्त्रं सर्वज्ञभाषितम् ॥ ७॥ गोपुच्छिकश्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः । निम्पिच्छश्चेति पंचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ॥१०॥ नास्त्यहतः परो देवो धर्मो नास्ति दयां विना । तपः परच नैर्ग्रन्थ्यमेतत्सम्यक्त्वलक्षणं ॥ ११ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy