SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मपरीक्षा में उकश्लोक और उसके सम्बंधकी दूसरी चर्चाको, विना किसी प्रतिवादके, ज्योंका त्यों स्थिर रक्खा है; इस लिए कहना पड़ता है कि आपने ऐसा करके निःसन्देह मारी भूल की है । और इससे आपकी योग्यता तथा विचारशीलताका भी बहुत कुछ परिचय मिल जाता है। (३ ) श्वेताम्बरी धर्मपरीक्षामें, एक स्थानपर, ये तीन पद्य दिये हैं: विलोक्य वेगतः खर्या क्रमस्योपरि मे क्रमः । भनो मुशलमादाय दत्तनिष्ठुरघातया ॥ ५१५ ॥ अयैतयोमहाराटिः प्रवृत्ता दुर्निवारणा। लोकानां प्रेक्षणीभूता राक्षस्योरिव रुष्टयोः ॥ ५१६ ॥ अरे ! रक्षतु ते पादं त्वदीया जननी स्वयम् । रुष्टखर्या निगोति पादो भयो द्वितीयकः ॥ ५१७॥ इन पद्योंमेंसे पहला पद्य ज्योंका त्यों वही है जो दिगम्बरी धर्मपरीक्षाके वें परिच्छेदमें नं० २७ पर दर्ज है। दूसरे पद्यमें सिर्फ 'इत्थं तयोः' के स्थानमें 'अथैतयोः' का और तीसरे पद्यमें 'बोडे' के स्थानमें 'अरे' और 'रुष्टया ' के स्थानमें ' खो' का परिवर्तन किया गया है। पिछले दोनों पद्य दिगम्बरी धर्मपरीक्षाके उक्त परिच्छेदमें क्रमशः नं. ३२ और ३३ पर दर्ज हैं । इन दोनों पदोंसे पहले अमितगतिने जो चार पद्य और दिये थे और जिनमें 'ऋक्षी' तथा 'खरी' नामकी दोनों बियोंके वाग्युद्धका वर्णन था उन्हें पद्मसागरजीने अपनी धर्मपरीक्षासे निकाल दिया है। मस्तु; और सब बातोंको छोड़कर, यहाँ पाठकोंका ध्यान उस परिवर्तनकी ओर आकर्षित किया जाता है जो 'रुष्टया के स्थानमें 'रुष्टखो ' बनाकर किया गया है। यह परि. बर्तन वास्तवमें बड़ा ही विलक्षण है। इसके द्वारा यह विचित्र अर्थ घटित किया गया है कि जिस खरी नामकी बीने पहले ऋक्षीके उपास्य चरणको तोर डाला था उसीने उक्षीको यह चैलेंज देते हुए कि ' ले । अब तू और तेरी मा अपने चरणकी रक्षा कर' स्वयं अपने उपास्य दूसरे चरणको भी तोड़ डाला । परन्तु खरीको अपने उपास्य चरण पर कोष आने और उसे तोड डालनेकी कोई वजह न थी। यदि ऐसा मान भी लिया गाय तो उक चैलेंजमें जो कुछ कहा गया है वह सब व्यर्थ पड़ता है। क्योंकि जब सरी क्षीके उपास्य चरणको पहले ही तोड चुकी थी, तब उसका क्षीसे यह कहना कि । अब तू अपने चरणकी रक्षा कर मैं उस पर भाक्रमण करती हूँ' बिलकुल ही भा और असमंजस मालम होता है। वास्तवमें, दूसरा चरण क्षीके द्वारा, अपना बदला चुकानेके लिए, तोडा गया था और उसीने सरीको ललकार कर उपर्युक वाक्य कहा था। पंचकर्ताने इसपर कुछ भी प्यान न देकर बिना सोचे समझे वैसे ही परिवर्तन कर गला है, जो बहुत ही मा मारम होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy