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________________ [२२१] वाक्यों से प्रकट है जो कि ३६ वें अध्याय में एक दिगम्बर साधुद्वारा, राजा 'वेन' को जैनधर्म का कुछ खरूप बतलाते हुए, कहे गये है: पितृणां तर्पणं नास्ति नातिथिवैश्वदेविकम् । कृष्णस्य न तथा पूजा ह्यईन्तध्यानमुत्तमम् ॥१६॥ धर्मसमाचारो जैनमार्ग प्रशते । पतसे सर्वमाख्यातं जैनधर्मस्य लक्षणम् ॥२०॥ और जैनियों के 'यशस्तिलक ' ग्रंथ से भी इस विषय का सम. न होता हैजैसाकि उसके चौथे आश्वस के निम्न वाग्य से प्रकट है, जोकि राजा यशोधर की जैनधर्म-विषयक श्रद्धा को हटाने के लिये उनकी माता द्वारा, एक वैदिकधर्मावलम्बी की दृष्टि से जैनधर्म की त्रुटियों को बतलाते हुए, कहा गया है:-- न तणं देवगिद्विजानां स्नानस्य होमस्य न चास्ति वार्ता । श्रुतेः स्मृतळातरे च धास्ते धर्मे कथं पुत्र ! दिगम्बराणाम् ॥ अर्थात्-जिस धर्म में देवों, पितरों तथा द्विजों (ऋषियों) का तर्पण नहीं, (श्रुतिस्मृतिविहित ) स्नान की-उसी पंचांग स्नान की और होमकी वार्ता नहीं, और जो श्रुति-स्मृति से अत्यन्त बाह्य है उस दिगम्बर जैनधर्म पर हे पुत्र! तेरी बुद्धि कैसे ठहरती है ?-तुझे कैसे उसपर श्रद्धा होती है ? इतने पर भी सोनीजी, भपने अनुवाद में, भट्टारकजी के इस तर्पणविषयक कपन को जैनधर्म का कयन बतलाने का दुःसाहस करते हैंलिखते हैं "यह तर्पण आदि का विधान जैनधर्म से बाहर का नहीं है किन्तु जैनधर्म का "!! मापने, कुछ अनुवादों के साथ में लम्बे नमे भावार्थ बोरकर, महारकजी के कथन को जिस तिस प्रकार से जैनधर्म का कपन सिद्ध करने की बहुतेरी चेष्टा की, परन्तु माप उसमें कृतकार्य नहीं हो सके। और उस चेष्टा में भाप कितनी ही उटपटांग बातें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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